बाजार में बहुत भीड़ थी आज । क्यों ना हो ,नवरात्रि का पहला दिन, लोग सुबह से ही स्नान ध्यान कर पूजा-पाठ की तैयारी में लगे हुए थे ।
मै भी स्नान कर ,कोरी साड़ी पहन, नंगे पैर माता रानी को लिवाने आई थी । फुटपाथ के उसी निश्चित कोने में , माता रानी विविध रूपों में मुर्ति रूप लिये दुकानों में सज रही थी । कहीं तीन मुंह वाली शेर पर सवार थी , कहीं अपने अष्टभुजा में सम्पूर्ण शस्त्रों के साथ , तो कहीं दस भुजा लेकर महिषासुर का वध करती हुई । काली ,चामुण्डा सबके दर्शन हुए लेकिन मै लेकर आई हमेशा की तरह अष्टभुजी माँ दुर्गा सिद्धीधात्री को ।
वहीं मिट्टी के दिये लेते हुए किनारे रोड पर जाकर नजर जैसे अटक गई । एक युवक रोड पर किनारे बेहोश सा पडा हुआ था ।
" क्या देख रही है वहाँ , वो बेवडा है ,पीकर टुन्न है ।"
" क्या , बेवडा ? "
मुझे टकटकी लगा कर चकित हो उसे देखना कुम्हार को पसंद नहीं आया हो जैसे । वो मुंह बना रहा था , शायद वह उसको प्रतिदिन देखने का आदी रहा हो , लेकिन इतने करीब से उसे देखना मेरा ,वो भी सुबह के ऊजाले में ,मेरे लिए यह दृश्य स्तब्ध करने वाला था कि कमाने ,,खाने और खिलाने के उम्र में यह ऐसे सड़क के किनारे बेवडा बनकर .....!
चौराहे पर रंगीन ब्लबों की लडियाँ और माता के नाम के पताके सजाये जा रहे थे । एक तरफ जिंदगी विविध रंगों से सरोबार होकर त्योहार मनाने को आकूल थी तो दूसरी तरफ ये यहाँ ,इस तरह जिंदगी से दूर ।
घर आते वक्त उस " बेवडे " युवक का चेहरा बार - बार आँखों के सामने कौंध रहा था ।
एकदम गोरा सा गोल सुंदर चेहरा , घनी सी भौंहे । सोच रही थी कि जिस दिन ये पैदा हुआ होगा , कितनी खुशियों का जनम हुआ होगा इसके साथ ।इतने गोरे से मुख वाले बच्चे को किस - किस उपमे से नवाजा गया होगा उस दिन । किसी ने राम, तो किसी नें नारायण के जन्म का होना भी कहा होगा । माता - पिता ने कितनी बधाइयां कबूल की होंगी इसके पैदा होने पर ।
प्रत्येक बच्चे का जन्म इस पृथ्वी पर कोमल माटी सा एक समान ही होता है , फिर जिसका जैसा नसीब , वैसा कुम्हार मिलता है । कच्चे हाथों में जाकर इस कोमल मिट्टी (बच्चे) के अंदर पर्याप्त गुण होने के बाद भी , मानों तो जैसे बहुत बडा नुकसान हो गया । अनपढ़ , अप्रशिक्षित कुम्हार ने मिट्टी के जीवन को व्यर्थ कर गया । ईश्वर भी इन अपरिपक्व सृजकों पर अवश्य क्षोभ प्रकट कर रहें होंगे ।
कौन दोषी था उस युवक को बेवडा बनाने में ?
मेरे मन के प्रश्न मन में ही लटकते रह गये और गाड़ी कब घर पहुँच गई मालूम ही नहीं पड़ा ।
"जय दुर्गा माई " के जयकारे के साथ माता रानी को सिर पर रख स्थापित जगह पर वास देकर घट स्थापना की तैयारी में लग गई । चिंतन अबतक जारी था ।
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
बहुत सुंदर, भावनाओं से परिपूर्ण इस लघुकथा के लिये बहुत-बहुत बधार्इ स्वीकारें। सादर,
हार्दिक बधाई आदरणीय कांता रॉय जी!बहुत ही मर्म स्पर्शी चित्रण किया है!
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