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ऑक्सीजन - (लघुकथा) - मिथिलेश वामनकर

“अब परेशान होने से क्या होगा? मैंने पहले ही कहा था कि इतनी उधारी मत करो.”

“गज़ब बात करती हो सुधा. अगर उधार नहीं लेते तो अनु की पढ़ाई का क्या होता?”

“क्या अनु यहीं नहीं पढ़ सकती थी? कितना कहा, पर आपको तो.... जवान बेटी को विदेश भेज दिया ... बरमंगम में पढ़ाएंगे”

“बरमंगम नहीं यूनिवर्सिटी ऑफ़ बर्मिंघम इन ग्रेट ब्रिटेन”

“जिस जगह का नाम तक याद नहीं रहता, वहां भेज दिया बेटी को और अब परेशान हो रहे है.”

“अरे मैं परेशान इसलिए हूँ कि संपत भाई इसी हप्ते चार लाख वापस मांग रहे है. अब इतना पैसा कहाँ से लाऊँ? जिनका अब तक लौटाया भी नहीं है उनसे फिर कैसे मांगू ? ”

“आपसे कितना तो कहा कि जितनी चादर है उतने ही पैर फैलाना चाहिए. लेकिन आपके सिर पर तो अनु को विदेश में पढ़ाने की धुन सवार थी.”

“बस भी करो सुधा, फिर वही राग छेड़ दिया तुमने. वैसे ही परेशान हूँ और तुम..... मेरा दम घुटता है ऐसी बातों से.”

“ठीक है भई, नहीं कहती कुछ.... खैर अब जो होना था सो हो गया.... अच्छा मैं क्या कहती हूँ कि मेरे गहने बेचकर चार-पांच लाख से ज्यादा ही मिल जायेंगे. आप क्या कहते हैं?”

“तुम भी न सुधा...” आज पत्नी के बालों की भीनी-भीनी महक ने, उसकी साँसों में फिर से ऑक्सीजन से भर दी.

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 25, 2015 at 5:03pm

आदरणीया राजेश दीदी, लघुकथा के मर्म पर आपका मुखर अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ हूँ. आपकी आत्मीय प्रशंसा से मुग्ध हूँ. सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. नमन 


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Comment by rajesh kumari on August 25, 2015 at 1:26pm

स्त्री को गहने प्रिय होते हैं ये बात अपनी जगह सही है किन्तु वही स्त्री वक़्त पड़ने पर खुद उन गहनों को उतार कर हाथ पर रख देती है ऐसे उदाहरण जीवन में बहुत देखे भी हैं गहने एक तरफ जहाँ तन की शोभा हैं वहीँ जरूरत वक़्त के लिए एक तरह से सेविंग भी |इस लघु कथा का सन्देश भी इसी बात पर निर्भर है बहुत अच्छी लघु कथा लिखी मिथिलेश भैया हार्दिक बधाई |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 25, 2015 at 10:59am

आदरणीय जितेन्द्र जी आप जैसे लघुकथाकार से सकारात्मक टीप पाना मेरे लिए बहुत मायने रखता है. लघुकथा के मुखर अनुमोदन से मुग्ध हूँ. सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.


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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 25, 2015 at 10:57am

आदरणीय गिरिराज सर, सही कहा आपने सर,गहने होते ही इसीलिये हैं.  लघुकथा की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. नमन 


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Comment by गिरिराज भंडारी on August 25, 2015 at 10:09am

आदरणीय मिथिलेश भाई , गहने होते ही इसीलिये हैं , जब तक कठिन स्थिति न आये शरीर की शोभा बढाये नहीं तो घर की इज़्ज़त बचाये । अच्छी लगी आपकी लघुकथा । बधाई आपको ।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 25, 2015 at 3:36am

बहुत सुंदर , आदरणीय मिथिलेश जी. आपकी लघुकथा हर तरह से कसौटी पर कसी हुई है. प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई


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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 23, 2015 at 11:34pm

आदरणीय वीरेंदर जी, लघुकथा की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. // कर्ज की बात बार बार करने की पीछे शायद उनकी परेशानी पर जोर डालने की कोशिश की गयी है जो थोड़ा सा कथा को बोझिल भी करती है।// आपके मार्गदर्शन के सापेक्ष पुनर्विचार करता हूँ. सादर 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 23, 2015 at 11:33pm

आदरणीया कांता जी, लघुकथा की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on August 23, 2015 at 11:25am
आदः मिथिलेश जी रचना पर प्रतिक्रिया आ ही चुकी है फिर भी इस मध्यम वर्ग की भावपूर्ण प्रस्तुति पर सादर बधाई। (आदः भाई जी मुझे इस कथा में कर्ज की बात बार बार करने की पीछे शायद उनकी परेशानी पर जोर डालने की कोशिश की गयी है जो थोड़ा सा कथा को बोझिल भी करती है। एक विचार मात्र भाई जी, सादर।)
Comment by kanta roy on August 22, 2015 at 6:58pm
वाह !!!!बडी भीनी - भीनी सी लघुकथा बनी है आदरणीय मिथिलेश जी । बधाई स्वीकार करें ।

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