For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

कुछ तो कहो, कुछ जवाब दो -- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

221—2121—1221—212

 

जुगनू से मांगने को चला है कि ताब दो

बेचैन हो गया है बशर  फिर नकाब दो

 

इस तिश्नगी से हम न कभी मुतमईन थे

जामिन से कब कहा था कि गोया सराब दो

 

किसने बदन से आपके चमड़ी उतार ली

खामोश क्यूं हो, कुछ तो कहो, कुछ जवाब दो?

 

दैरो-हरम में आ गए हो दिल निकाल के

अब ये तो मत कहो कि मुझे भी शराब दो

 

माना कि बेजुबान है, नादाँ, गरीब है

इंसान का उसे भी कभी तो खिताब दो

 

तुम भी हकीक़तों की हिमायत करों मगर

जीने को सब्ज बाग़ के इफरात ख्व़ाब दो    

 

इस जंग की फतह को जरा-सा परे रखों

कुल खर्च आदमी जो हुए है,  हिसाब दो

 

बस दहशतों के जिक्र है हर एक वर्क पर

चैनो-सुकूं की एक तो सच्ची किताब दो

 

 

------------------------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
------------------------------------------------------------

Views: 903

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 25, 2015 at 4:24am

आदरणीय गिरिराज सर, ग़ज़ल की सराहना मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 27, 2015 at 7:25am

आदरणीय मिथिले भाई , लाजवाब गज़ल कही है , सभे शे र बहुत सुन्दर हुये हैं । आदरणीय समर भाई जी की इस्लाह भी खूब है , गज़ल की रंगत और सुधर गई है । आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

मै एक बात और जोड़ना चाहता हूँ विचार के लिये --

जुगनू से मांगने को चला है कि ताब दो    ---  मांगने चला है क्या वही अर्थ नहीं देता जो मांगने को चला है  दे रहा है । एक बार सोच लीजियेगा ।

गज़ल के लिये आपको पुनः हार्दिक बधाइयाँ ।


 

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 27, 2015 at 12:15am
प्रिय मिथिलेश जी , बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है, कुछ ख़्वाब कुछ खयालात भी जरूरी हैं जिंदगी के लिए , बहुत बहुत बधाई , सादर।
Comment by Ravi Shukla on August 26, 2015 at 1:59pm

आदरणीय मिथिलेश जी आदाब

आपकी एक और ग़ज़ल पढ़कर बहुत ही अच्‍छा लगा समूचे कथ्‍य और शिल्‍प पर दाद कुबल करें । इसी ग़ज़ल पर हुई चर्चा से काफी कुछ सीखने को मिला और आपकी ग़ज़ल में और भी निखार आया । अगर चर्चा के दौरान हम मौजूद होते तो हमारा भी आग्रह आप ही की तरह होता । समर साहब ने आपके आग्रह का मान रखा । आभार उनका । और आपका भी इन अश्‍आर के लिये 

इस जंग की फतह को जरा-सा परे रखों

कुल खर्च आदमी जो हुए है,  हिसाब दो

जंग के जोश में ये होश वाली बात कहां याद रहती है सलाम आपकी सोच को

माना कि बेजुबान है, नादाँ, गरीब है

इंसान का उसे भी कभी तो खिताब दो     गरीब के हक में खड़े  आपके हौसले को सलाम

बधाई सुन्‍दर ग़ज़ल के लिये


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 25, 2015 at 12:04pm

संशोधित ग़ज़ल 

जुगनू से मांगने को चला है कि ताब दो

बेचैन हो गया है बशर  फिर नकाब दो

 

इस तिश्नगी से हम तो कभी थे न मुतमइन

जामिन से कब कहा था कि आबे-सराब दो

 

किसने बदन से आपके चमड़ी उतार ली

खामोश क्यूं हो, कुछ तो कहो, कुछ जवाब दो?

 

दैरो-हरम में आ गए हो दिल निकाल के

अब ये तो मत कहो कि मुझे भी शराब दो

 

माना कि बेजुबान है, नादाँ, गरीब है

इंसान का उसे भी कभी तो खिताब दो

 

तुम भी हकीक़तों की हिमायत करों मगर

जीने को सब्ज बाग़ के दो-चार ख्व़ाब दो    

 

इस जंग की फतह को जरा-सा परे रखों

कुल खर्च आदमी जो हुए है,  हिसाब दो

 

बस दहशतों के जिक्र वरक-दर-वरक मिले

चैनो-सुकूं की एक तो सच्ची किताब दो


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 25, 2015 at 10:55am

आदरणीया कांता जी, ग़ज़ल की सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. 

//" चैनो - सुकूं की किताब "की तलाश के लिए । मिले ना मिले ख्वाहिशों पर तो हक बनता ही है अपना ।// इस टीप के हवाले से-

आसान तो नहीं है जवानी का लौटना 

इक बार तो हमें भी मगर फिर खिज़ाब दो 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 25, 2015 at 10:47am

आदरणीय समर कबीर जी, मार्गदर्शन और अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार 

Comment by kanta roy on August 25, 2015 at 9:26am

किसने बदन से आपके चमड़ी उतार ली खामोश क्यूं हो, कुछ तो कहो, कुछ जवाब दो?......... वाह ! वाह ! क्या खूब तेवर है गजल के ..... बधाई आपको " चैनो - सुकूं की किताब "की तलाश के लिए । मिले ना मिले ख्वाहिशों पर तो हक बनता ही है अपना ।

Comment by Samar kabeer on August 24, 2015 at 10:01am
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,

इस तिश्नगी से हम तो कभी थे न मुतमइन
जामिन से कब कहा था कि आबे-सराब दो

:- ये अब ठीक हो गया है ।

तुम भी हकीक़तों की हिमायत करों मगर
जीने को सब्ज बाग़ के तादादे-ख्व़ाब दो / गमख्वार ख्व़ाब दो / बेहद्द ख्व़ाब दो/ दो चार ख्व़ाब दो/

:- "जीने को सब्ज़ बाग़ के दो चार ख़्वाब दो"

बस दहशतों के जिक्र वरक़-दर-वरक़ मिले
चैनो-सुकूं की एक तो सच्ची किताब दो

:- ये शैर भी अच्छा हो गया है

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 24, 2015 at 12:35am

बेशक हकीक़तों की हिमायत करों मगर
जीने को सब्ज बाग़ के हर बार ख्व़ाब दो 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-161
"आ. प्रतिभा बहन अभिवादन व हार्दिक आभार।"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-161
"आदरणीया प्रतिभा पाण्डे जी सादर, प्रस्तुत ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार. सादर "
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-161
"हार्दिक आभार आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी. सादर "
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-161
"आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार।"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-161
"आ. प्रतिभा बहन, सादर अभिवादन। सुन्दर गीत हुआ है। हार्दिक बधाई।"
yesterday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-161
" आदरणीय अशोक जी उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार "
yesterday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-161
"  कोई  बे-रंग  रह नहीं सकता होता  ऐसा कमाल  होली का...वाह.. इस सुन्दर…"
yesterday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-161
"बहुत सुन्दर दोहावली.. हार्दिक बधाई आदरणीय "
yesterday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-161
"बहुत सुन्दर दोहावली..हार्दिक बधाई आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी"
yesterday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-161
"सुन्दर होली गीत के लिये हार्दिक बधाई आदरणीय "
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-161
"आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। बहुत अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-161
"आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी सादर, उत्तम दोहावली रच दी है आपने. हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर "
yesterday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service