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1222 / 1222 / 1222 / 1222
-
ग़ज़ल ने यूँ पुकारा है मेरे अल्फाज़, आ जाओ 
कफ़स में चीख सी उठती, मेरी परवाज़ आ जाओ

 

 

चमन में फूल खिलने को, शज़र से शाख कहती है 
बहारों अब रहो मत इस कदर नाराज़ आ जाओ



किसी दिन ज़िन्दगी के पास बैठे, बात हो जाए
खुदी से यार मिलने का करें आगाज़, आ जाओ



भला ये फ़ासलें क्या है, भला ये कुर्बतें क्या है
बताएँगे छुपे क्या-क्या दिलों में राज़, आ जाओ



हमारे बाद फिर महफिल सजा लेना ज़माने की
तबीयत हो चली यारों जरा नासाज़, आ जाओ



अकीदत में मुहब्बत है सनम मेरा खुदा होगा
अरे दिल हरकतें ऐसी ज़रा सा बाज़ आ जाओ



मरासिम है गज़ब का मौज़ से, साहिल परेशां है
समंदर रेत को आवाज़ दे- ‘हमराज़ आ जाओ’



ख़ुशी ‘मिथिलेश’ अपनी तो हमेशा बेवफा निकली
ग़मों ने फिर पुकारा है- ‘मिरे सरताज़ आ जाओ’

---------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर 
---------------------------------------------


बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
अर्कान – मुफाईलुन / मुफाईलुन / मुफाईलुन / मुफाईलुन
वज़्न – 1222 / 1222 / 1222 / 1222

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 18, 2015 at 2:40pm

आदरणीय नितिन गोयल जी, ग़ज़ल आपको पसंद आई, मेरे लिए ख़ुशी की बात है. सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.संशोधन के बाद मतला कुछ यूं हुआ हैजिसे एडिट नहीं कर पाया -

ग़ज़ल दिल से बुलाती है, नये अल्‍फ़ाज़ आ जाओ 
नये अंदाज़ आ जाओ, नयी परवाज़ आ जाओ।

Comment by Nitin Goyal on August 18, 2015 at 12:12pm
मतला ए शेर युं भी हो सकता था "गज़ल ने फिर पुकारा है, मेरे अल्फाज़ आ जाओ,कफस से/में चीख उठती है, मिरी परवाज़ आ जाओ"
Comment by Nitin Goyal on August 18, 2015 at 12:07pm
शानदार बेहतरीन उम्दा गज़ल

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 12, 2015 at 7:59am

आदरणीय  Ashok Kumar Raktale जी आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए आभार. हार्दिक धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 12, 2015 at 7:57am

आदरणीय सौरभ सर, आपकी टिप्पणी से इतिहास, वर्तमान और भविष्य तीनों का मर्म समझ आ गया. आपकी विस्तृत टिप्पणी में मार्गदर्शन और वे संकेत जो समझने की आवश्यता है, उन पर गंभीरता से विचार किया है. जो बातें समझा हूँ -

1- जिन विन्दुओं पर यह चर्चा रह-रह कर जाने लगती है, उसके प्रति संयत होने की आवश्यकता है

2-इन विषयों पर आदरणीय तिलकराजजी ही नहीं, बल्कि भाई वीनस के भी बड़े संयत और स्पष्टभाषी आलेख हैं. उनको कायदे से  पढ़ना है फिर  आगे रचनाकर्म हो. तमाम टिप्पणियों से कई और महत्त्वपूर्ण विन्दु लगातार समझ में इज़ाफ़ा करते जायेंगे.

3- अरूज़ पर अपनी लिखी किताबों से लाइम-लाइट .........ग़ज़लें सिनाद आदि जैसे दोषों छोड़िये, बिना काफ़ियों की होने के कारण ख़ारिज़ .........

ये इतिहास का मर्म है जो अब तक नहीं जानता था .इस पर चर्चा भी नहीं कर रहा हूँ. सचेत जरुर हो गया हूँ. आपके स्नेह और मार्गदर्शन का सदैव आभारी रहा हूँ. नमन.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 12, 2015 at 7:34am

आदरणीय तिलक राज कपूर सर मेरी ग़ज़ल पर आपका आशीर्वाद मिला, अभिभूत हूँ अपना मतला... आपकी अनुभवी कलम से से सजा हुआ पाकर .... सीधे लफ्जों में बड़ी बात.... 

ग़ज़ल दिल से बुलाती है, नये अल्‍फ़ाज़ आ जाओ 
नये अंदाज़ आ जाओ, नयी परवाज़ आ जाओ।  (मैं फ़िज़ूल ही कफ़स में चीख उठाने लिए आतुर था)

आपने ग़ज़ल के रचनाकर्म पर अमूल्य मार्गदर्शन दिया  है . आपकी ये पंक्तियाँ एक ग़ज़ल कहने वाले हरेक नए शायर के लिए ब्रम्ह्वाक्य के समान है -

\\ग़ज़ल में रदीफ़ काफि़या और बह्र का प्रचलित निर्वाह भर हो जाये इतना पर्याप्‍त होता है; ग़ज़ल सराही जाती है कलाम से, कहन से। कहन पर केन्द्रित हों, वाक्‍य विन्‍यास पर ध्‍यान दें, कहन की साहित्यिक मर्यादा पर ध्‍यान दें। यही सब आपकी पहचान बनायेगा। फिर कोई आपको किसी शेर में दोष बताये तो उससे अच्‍छी तरह समझें और भविष्‍य में ध्‍यान रखें। एक-एक कर दोष समझ आते जायेंगे। \\---------- इनका पूरा पालन करूँगा.किताबों की आतुरता का मूल कारण, चर्चा में सन्दर्भ ग्रंथों का इतना अधिक उल्लेख था कि मुझे लगा मैंने कुछ नहीं पढ़ा है ऐसी स्थिति में चर्चा में सम्मिलित कैसे हो पाऊंगा. भटक गया था कि मूल कर्म ग़ज़ल कहना है, चर्चा करना नहीं. चर्चा केवल अनुषांगिक है. आपने स्थिति स्पष्ट कर दी.

इस मार्गदर्शन के लिए नमन .... 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 12, 2015 at 7:07am

आदरणीय गिरिराज सर आपकी बात समझ आ गई ...इस मुहल्ले का सब से अच्छा टेलर  । 

Comment by Ashok Kumar Raktale on January 11, 2015 at 6:46pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सादर, अच्छी गजल कही है आपने. आपकी गजल पर चली चर्चा से बहुत सी जानकारियाँ हुई हैं. किसी व्यक्ति में सही जानकारी पाने की कितनी ललक हो सकती है यह आदरणीय वीनस जी के द्वारा दी गई पुस्तकों की लम्बी सूचि से साफ़ समझा जा सकता है. उनके द्वारा  सर्वहित के  लिए किये श्रम को नमन. सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 11, 2015 at 6:20pm

//अनुराग प्रतीक जी उस समय इस मंच पर नहीं थे इसलिए उनको ये बात शायद समझ न आये कि किसकी बात हो रही है //

हाँ, उस वक्त डॉक्टर साहब ही थे. ..

वीनस भाई, चूँकि, किताबों का ज़िक्र चल निकला इसीसे हमने सोचा कि चर्चा को उस दिशा में मोड़ी जाय जहाँ ज्ञान पर चर्चा हो न कि आवरण पर. वर्ना किताबों की कोई कमी है ही कहाँ !?

Comment by वीनस केसरी on January 11, 2015 at 6:02pm

// वर्ना, इसी मंच पर ऐसे भी सदस्य भी हैं, भले वे आज उतने सक्रिय नहीं हैं, जो इस मंच की सदस्यता लेने के पूर्व ही अरूज़ पर अपनी लिखी किताबों से लाइम-लाइट में आ चुके थे. लेकिन उन साहबानों की ग़ज़लें सिनाद आदि जैसे दोषों छोड़िये, बिना काफ़ियों की होने के कारण ख़ारिज़ हुई हैं. //

उफ्फ्फ सौरभ जी आपने भी किसकी याद दिला दी ...
ऐसे भी लोग होते हैं जान कर आश्चर्य हुआ था ...
ऐसे लोग जो अपनी लिखी अरूज़ की किताब की बातों को अपनी ही ग़ज़ल में नहीं निभा पाते हैं  ...
पता नहीं किताब खुद ही लिखी थी या किराए पर लिखवाई थी ... वैसे डॉ साहब हैं भले आदमी ... भलमनसी में भूल कर बैठते हैं
उनकी मासूम हरकतें आज भी भुलाए नहीं भूलती ...

अनुराग प्रतीक जी उस समय इस मंच पर नहीं थे इसलिए उनको ये बात शायद समझ न आये कि किसकी बात हो रही है ....
खैर अच्छा जिक्र किया आपने उनका ...

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