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योगी श्री अरविन्द/सॉनेट

सादर वन्दे वन्दनीय सुधी वृन्द।

महानुभावों सर्वज्ञात है, गत 5 दिसम्बर को महर्षि अरविन्द का निर्वाण दिवस था। आपका साहित्य(सावित्री अभी छू भी नहींसकी),मेरे हृदय को बहुत सहलाता है।यद्यपि  इस महान दार्शनिक,कवि और योगी के साहित्य की अध्यात्मिक ऊंचाई के दर्शन करने में भी समर्थ नहीं हूँ फिर भी सूरज को दिया दिखाने जैसा कार्य किया है,जो आपको निवेदित है।सादर निवेदन है कि मुझे जरुर अवगत कराएँ की मेरी समझ कहाँ तक सफल हो पाई है।

सांसे इक अद्भुत लय धारा में बहती हैं;

मम सर्वांगों में इसने दैवी शक्ति भरी:

पिया अनन्त रस,जस दैत्य की सुरा आसुरी।

काल हमारा नाटक या स्वप्न बराती है।

आनन्द से हर अंश मेरा अप्लावित है

अब रुख बदला पुलकित,विघटित भाव तन्तु का

हुआ अमूल्य,स्वच्छ हर्षोल्लासित पथ का

जो त्वरित आगमन सर्वोच्च अगोचर का है।

मैं रहा नहीं और,इस शरीर के अधीन,

प्रकृति का अनुचर,उसके शांत नियम का;

नहीं रही मुझमें इच्छाओं की तंग फँसन।

मुक्त आत्मा,असीम दृश्य का तदरूप हुआ

ईश का सजीव सुखद यंत्र यह मेद मेरा,

चिर प्रकाश का भव्य सूर्य यह जीव हुआ।

('Transformation' नामक कविता का अनुवाद,जो श्री अरविन्द ने आध्यात्मिता से आए परिवर्तन को वर्णित करते हुए लिखी थी)

मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Vindu Babu on February 1, 2014 at 8:17am

आदरणीय बृजेश सर:

अहो भाग्य जो प्रयास को आपका आशीर्वाद मिला।

आपका सादर आभार।

Comment by Vindu Babu on February 1, 2014 at 8:12am

आदरणीय विजय मिश्र जी आपका हार्दिक धन्यवाद!

सादर

Comment by बृजेश नीरज on January 30, 2014 at 7:50pm

अनुवाद बहुत ही कठिन कार्य है क्योंकि भाषांतरण के लिए उपयुक्त शब्दों के चयन के साथ ही उस रचनाकार की मनोदशा और सोच तक भी पहुँच बनानी होती है जिसकी रचना का अनुवाद कर रहे होते हैं.

आदरणीया वंदना जी, आपके इस प्रयास को देखकर सुखद अनुभूति हुई. इस दिशा में आपका यह कदम प्रशंसनीय है. 

आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ!

Comment by विजय मिश्र on January 6, 2014 at 12:47pm
बहुत सुंदर रुपायन ,सार्थक प्रयास , साधुवाद वन्दनाजी |
Comment by Vindu Babu on December 22, 2013 at 7:35am

आदरणीय:

निवेदन करना चाहूंगी मुझे इधर पचास-साठ सालों में हिंदी सुगठित होने के साथ विकृत होती दिखी है,जैसे अनेकानेक अंग्रजी शब्दों का सम्मिश्रण,भाषा में प्रुयुक्त विराम चिन्हों(।,:,;etc) का लुप्त होना,वर्तनी की अशुद्धियाँ आदि आदि।

यदि मेरी यह समझ सही न हो तब भी उन पुरोधाओं की भाषा से ऊपर उठने(और संयत रूप देना) से पहले आवश्यक है हम उनकी भाषा की तह तक पहुंचे...लेकिन मैंने तो अभी शुरुआत की है आदरणीय,आपसे पुनः निवेदन कृपया उपयुक्त शब्द सुझाएँ।

तीसरी बात ये भी है किसी रचना का अनुवाद करने के लिए उसके रचनाकाल तक पहुंचकर उसी भाव दशा में डूब कर शब्द देने होते है,इसलिए यह कार्य कुछ मुश्किल हो जाता है...ऐसा मैंने किसी विद्वान् द्वारा लिखित पढ़ा ही नहीं बल्कि आत्मसात किया है,क्योंकि भविष्य में मैंने चुनिंदा पुस्तकों के अनुवाद का सपना संजोया है।

प्रशंसा के लिए नहीं...प्रसिद्धि के लिए तो बिलकुल नहीं बल्कि उन महान विद्वानों के दर्शन और भावोन को जीने लिए...मेरे आस-पास के कुछ लोग ,उनको वह साहित्य साहित्य समर्पित करने के लिए, जिनतक उनकी पहुंच नहीं हो पाई।

आपके अध्ययन और पहुँच को शत-शत प्रणाम करती हूँ।

मात्र प्रशंसा ही लिखने का उद्देश्य नहीं आदरणीय,बल्कि तथ्यपरक चर्चा करना था क्योंकि मेरा पहला सार्थक कदम था।

आप सभी के स्नेहात्मक सहयोग के लिए सादर विनयी हूँ।

सादर... सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 21, 2013 at 11:21am

मेरे कहे को इस रूप में अनुमोदित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीया.

मैंने अपने पिछले कहे में आपके प्रयासों की प्रशंसा तो की ही है लेकिन शब्द गठन को लेकर यह भी निवेदित किया था -  विधा प्रयोग के प्रारम्भिक समय में कुछ विद्वानों द्वारा रचनाकर्म में कुछ छूट लिया जाना, रचना-विधान के विकास के उत्तरकाल में प्राचीन प्रयोग या अपवाद स्वरूप स्वीकारा जाता है.

उपरोक्त कथन से मेरा आशय यही था, जो आपने कहा है. यानि पिछले पचास-साठ वर्षों में हिन्दी कई मायनों में सुगठित हुई है, या सही कहिये, हमलोगों का यह दायित्व बनता है कि इस भाषा के गठन के प्रति तनिक और संयत हों. दिनकर या बच्चन या ऐसे पुरोधाओं को ही नहीं, महर्षि अरविन्द को भी मैंने पढ़ा है. कायदे से पढ़ा है मैंने. उनके लिखे के अक्सर मूल रूप में ही, यानि अंग्रेज़ी में. वहाँ वाक्यों के काम्प्लेक्स यानि जटिल गठन, शब्दों के अद्भुत प्रयोग और वैचारिक रूप से अत्यंत गहनता का शाब्दिक स्वरूप आदि मुझे विस्मित ही नहीं करते, मोहित भी करते हैं. उस परिप्रेक्ष्य से भी आपके इस अनुवाद को देख गया मैं. 

फिरभी किसी भावुकता से बचता हुआ मैं अपना ध्यान आपकी प्रस्तुति के शब्द, वाक्य और शिल्प पर ही अधिक केंद्रित रख पाया तो कारण स्पष्ट है.

सादर

Comment by Vindu Babu on December 21, 2013 at 8:43am

आदरणीय सौरभ सर:

आपकी उपस्थिति से सच में मन प्रसन्न हुआ।

आपसे सादर निवेदन है कि बार-बार 

विश्वास है, मेरे कहे को आप सकारात्मक रूप से लेंगी...कहने की आवश्यकता नहीं ,आपका शब्द शब्द सर आँखों पर आदरणीय।

सही बताऊँ सर आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर सबसे पहले दिमाग में आया कि जब श्री अरविन्द जी शरीर को ही यंत्र बना दिया तो क्या मैं शब्द भी यांत्रिक नहीं प्रयोग कर सकती ...लेकिन समय लेकर प्रतिक्रिया करने के कारण समझ में आया कि शरीर भोतिक है लेकिन शब्द तो शायद उससे परे होते हैं।

   आदरणीय मैंने इस साधारण से प्रयास में मैंने रामधारी दिनकर जी की शब्दावली का आश्रय लिया,जो उन्होंने महर्षि की ही कविताओं को अनूदित करने में प्रयोग की है।

दू

सरी बात ये यदि सॉनेट की द्रष्टि से प्रयुक्त शब्दावली अनुपयुक्त है तो ये कविता श्री अरविन्द जी ने सॉनेट फॉर्म में ही लिखी है

इसलिए

योगी श्री अरविन्द/सॉनेट शीर्षक लिखा और हिंदी में भी उसी क्रम में लिखने का प्रयास किया। 

 सर स्पष्ट करना उचित समझती हूँ की मैंने हरिवंश राय बबच्चन जी और रांगेय राघव जी के पद्यानुवाद ध्यान से पढ़ने के बाद यह अनुवाद करने का साहस जुटाया है।यदि महर्षि जी के साहित्य को ठेस पहुंची हो तो करबद्ध क्षमाप्रार्थी हूँ।

आपसे निवेदन है कि उचित शब्द सुझाएँ आदरनीय जो गडमड से रचना उबर सके।

अआपकी निष्ठ टिप्पणी के लिए हृदयतल से बारम्बार आभार और अग्रिम सहयोग के लिए करबद्ध निवेदन के साथसासाद  वन्दना

Comment by Vindu Babu on December 21, 2013 at 8:03am

आदरणीया अन्नपूर्णा दीदी:

सराहना के लिए सादर धन्यवाद।

-वन्दना

Comment by Vindu Babu on December 21, 2013 at 8:00am

आदरणीय विजय निकोर सर:

//इसमें आप पूर्णता सफ़ल हुईं हैं//

कहकर आपने आश्वस्त किया,बहुत मनोबल बढ़ा।

आपका हार्दिक आभार आदरणीय।

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 19, 2013 at 10:08pm

आदरणीया वन्दनाजी, सोनेट की जो कुछ जानकारी हुई है वह त्रिलोचन शास्त्री के समग्र से ही हुई है या इसकी कुछ नियमावलियों के कतिपय मंचों और पत्रिकाओं में साझा होने से हुई है. तत्सम्बन्धी विधान भले संक्षेप में चूँकि त्रिलोचन शास्त्री के समग्र में समझाने का प्रयास हुआ है वह महत्त्वपूर्ण इशारा तो देते ही हैं.
सर्वोपरि, भाई बृजेशजी की इस मंच पर सोनेट प्रस्तुतियों पर हुई चर्चाओं और प्रतिक्रियाओं से बहुत कुछ समझने का प्रयास किया है. इस तरह आप सभी एक लगन तो लगा ही गये हैं.. :-))

ख़ैर, विधान की बातें अपनी जगह, सोनेट पर हुई उन चर्चाओं और प्रतिक्रियाओं के क्रम में मैंने भी तोतली ज़ुबान में थोड़ी बहुत हिस्सेदारी की थी. वहाँ भी मैंने वही कहा था जो अभी कहूँगा.
भारतीय भाषाओं की रचनाओं की अपनी सत्ता है और कोई रचना किसी विधान ही में क्यों न हो भाषा और भाषा-विधान एक ही रहेंगे. शब्दों के प्रयोग का अनुसार या ढंग नहीं बदलता.


आप द्वारा हुई इस सोनेट प्रस्तुति की भाषा कई स्थानों पर कृत्रिम सी है जो साहित्य-सम्मत नहीं मानी जाती. तत्सम शब्दों के प्रयोग का भी एक तरीका है जिसका अनुकरण हमें करना ही होगा.
एक उदाहरण - 
मम सर्वांगों में इसने दैवी शक्ति भरी:
पिया अनन्त रस,जस दैत्य की सुरा आसुरी।

उपरोक्त पद तत्सम, देसज और आध्यात्मिक शब्दों का अज़ीब सा गड्डमड्ड है और ऐसा कोई भाषाई तौर पर हुआ प्रयोग समर्थ, सार्थक प्रयोग नहीं माना जाता. भले ही, तथ्य और निहित भाव अति उन्नत क्यों न हों.


विश्वास है, मेरे कहे को आप सकारात्मक रूप से लेंगीं और तदनुरूप भाषा-व्यवहार को अपनायेंगीं.
दूसरे, हिन्दी भाषा की गेय कविताओं के भाषिक और वर्णिक एवं मात्रिक नियम होते हैं. अतः कविता किसी विधान में क्यों न हो उन नियमों का अनुसरण और अनुकरण अवशय ही करेगी. करना ही चाहिये.

विधा प्रयोग के प्रारम्भिक समय में कुछ विद्वानों द्वारा रचनाकर्म में कुछ छूट लिया जाना, रचना-विधान के विकास के उत्तरकाल में प्राचीन प्रयोग या अपवाद स्वरूप स्वीकारा जाता है. और, विधाओं का विज्ञान और शास्त्र आगे चल कर क्लिष्ट से क्लिष्टतर होने लगते हैं.

 
संभवतः मैं अपनी बातें स्पष्ट कर पाया.
सादर

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