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पुस्तक-समीक्षा एक ऐसा साहित्यिक प्रयास है जिसके माध्यम से कोई समीक्षक या आलोचक उस पुस्तक या उसकी रचना(ओं) के माध्यम से लेखक या रचयिता के रचनाकर्म को खंगालता है. इसी क्रम में वह उस रचयिता के रचनाधर्म को समझ कर उसके साहित्यिक व्यक्तित्व को परखने का प्रयास करता है.

अर्थात, यह जान लेना आवश्यक है, कि कोई समीक्षक उक्त रचनाकार से वैयक्तिक रूप से चाहे कितना ही परिचित क्यों न हो, रचनाकार की कृति के सापेक्ष ही वह रचनाकार का परिचय पाठकों से करावे. ऐसा न होने पर समीक्षक अपने दायित्व बोध से न केवल च्यूत होता है, बल्कि पाठक की संवेदना के साथ अपराध भी करता है. रचनाकर्म ऐसी प्रक्रिया है जो दीर्घकाल तक सतत हो तो सुगठित होती है. सतत प्रयास से अर्जित अनुभव के आधार पर ही एक लेखक अपनी रचनाओं में प्रयुक्त शब्दों की डिग्री, उसके निहितार्थ और उसकी प्रस्तुति की महत्ता को माँजता है. लेखक से जैसे अनुभव समय मांगता है, उसी तरह किसी समीक्षक में आलोचना की समझ विकसित होने के क्रम में भी उसका अनुभव उचित समय की मांग करता है.

आगे,  यह जानना रोचक होगा कि किसी समीक्षक या आलोचक में मुख्य गुण क्या अवश्य होने चाहिये -- 


क)  ज्ञान का विस्तृत होना - ज्ञान ही समझ को विस्तार देता है. विस्तृत समझ ही आलोचक की पूँजी है. दायित्व के प्रति संवेदनशीलता और आग्रह ज्ञान की तराज़ू पर ही तौली जा सकती है. विषय का ज्ञान तो हो ही, विषय के इतर उसकी गहन जानकारी उसे आलोच्य पुस्तक और लेखक के प्रति न्याय को सार्थक एवं सुगम करती है. 


ख)  सुहृद होना - यदि आलोचक या समीक्षक सुहृद नहीं है तो वह लेखक को अपना ही प्रतियोगी मान बैठेगा. ऐसी समझ रचनाकार या लेखक की कृति के साथ उचित न्याय नहीं कर पाती. द्वेष या ईर्ष्या से भरा आलोचक लेखक और विषय के साथ व्यापक हो ही नहीं सकता, पाठक के साथ भी अन्याय करता है. लेकिन इसके साथ ही पुस्तक-समीक्षा से सम्बन्धित एक तथ्य जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण है वो ये है कि समीक्ष्य पुस्तक के रचयिता / लेखक को अति सम्मान सूचक सम्बोधनों से समीक्षा में इंगित नहीं किया जाता. समीक्षा-साहित्य में यह एक मान्य परम्परा है. इसका एक कारण यह हो सकता है कि रचनाकार की रचना का नीर-क्षीर होता है, और यहाँ रचनाकार नहीं बल्कि रचना मुख्य होती है. आदरसूचक सम्बोधन समीक्षक को पूर्वग्रह से ग्रसित साबित कर सकते हैं. इस कारण में दम है.

अतः समीक्षा में आदरणीय या श्रद्धेय आदि सम्बोधन न लिखें. 

ग)  आलोचना के क्रम में अपनायी गयी निष्पक्षता - यह ऐसा गुण है जिसका आनुपातिक रूप से न्यून होना किसी सामान्य सी लेखकीय कृति को कालजयी घोषित करवा दे सकता है. यही वह गुण है जो समीक्षक को दायित्व निर्वहन के क्रम में संयत रखता है. अन्यथा आलोचक का कोई परिचित किन्तु सामान्य लेखक उद्भट्ट विद्वान की श्रेणी का घोषित हो सकता है. जो कि साहित्य के प्रति सचेत पाठकों को भ्रम में डाल सकता है. यदि समीक्षक तटस्थ या निर्पेक्ष न हो तो लेखक की प्रगति के साथ भी धोखा होता है.

वस्तुतः आलोचना का कार्य लेखक या रचनाकार तथा उसकी कृति का यथार्थवादी मूल्यांकन करना है. अर्थात, समीक्षक आलोच्य पुस्तक के गुणों को तो उभारे ही, दोषों को भी सामने लाये ताकि एक रचनाकार या लेखक अपनी वास्तविक स्थिति समझ सके और उसकी रचनाधर्मिता में आवश्यक आयाम और ऊँचाई आ सके.

इस तरह,  समीक्षक किसी लेखक का शुभचिंतक तो होता ही है, उसका मार्गदर्शक भी होता है. वह अपनी समझ और अनुभव से आलोच्य पुस्तक की तुलना करते हुए अन्य उपलब्ध कृतियों के सापेक्ष मीमांसा करता है ताकि लेखक अपने प्रयास के प्रति सार्थक रूप से आश्वस्त हो सके.

अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि किसी काव्य कृति में आलोच्य विषय की सीमा रेखा को तय करने के लिए क्या-क्या विन्दु आवश्यक हो सकते हैं ? यह प्रश्न अत्यंत प्रासंगिक है. और इसका समाधान भी उपरोक्त विन्दुओं के परिप्रेक्ष्य में ही ढूँढना समीचीन होगा.
क)  यह जानना कि लेखक या रचनाकार के प्रयास का आधार क्या है
ख)  यह जानना कि लेखक की समझ और विषय के प्रति उसका ज्ञान कितना विकसित है
ग)  लेखक की शैली और विधा पर कितनी पकड़ है
घ)  समीक्षक की स्वयं की वैधानिक पकड़ कैसी है
ङ)  लेखक साहित्यिक और व्याकरणीय कसौटी पर कितना खरा उतरता है
च)  लेखक ने समाज हेतु किस तरह से दायित्व निर्वहन किया है

उपरोक्त विन्दुओं के आलोक में यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखनकर्म के पूर्व लेखक द्वारा विधा, तथ्य और कथ्य पर सार्थक प्रयास आवश्यक है, तो समीक्षक के लिए विस्तृत समझ का बन जाना उससे भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है.

यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि रचनाओं में बिम्ब और प्रतीक का प्रायोगिक महत्व और उनके मध्य का सूक्ष्म अंतर मुखरता से सामने आवे. आलोचक या समीक्षक स्पष्ट रूप से जाने कि बिम्ब जहाँ इंगितों और मनस संप्रेषण के माध्यम से विन्दु को प्रस्तुत करता है, तो प्रतीक भौतिक प्रारूप से तुलनात्मकता को साधने के आधार का कारण होता है. इसी आधार पर आलोच्य पुस्तक को अन्यान्य कसौटियो पर रखा जा सकता है.

कुल मिला कर, आलोचक तथ्यपरक विन्दुओं की स्थापना करे जिसकी कसौटी पर आलोच्य पुस्तक या रचना को कसा जा सके और एक सर्वमान्य सहमति बन सके जिसका लाभ पाठकों के साथ-साथ रचनाकार को भी मिले. आलोचक का यही दायित्व ही उसे लेखक का मात्र शुभचिंतक से आगे उसका मार्गदर्शक बनाता है.

***********************************

- सौरभ

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Replies to This Discussion

आलोचक पर मेरी परिभाषा भी देखिये ...

आज का सफल आलोचक =

लेखक का वह परम हितैषी, जो उसके और उसकी पुस्तक के अवगुणों पर पर्दा डाल कर लेखक को और उसकी कृति को कालजयी साबित करने में अपनी एड़ी चोटी का जोर लगा दे और साबित करके ही दम ले
या
लेखक का वह परम शत्रु जो उसके और उसकी पुस्तक के गुणों पर पर्दा डाल कर लेखक को और उसकी कृति को रद्दी साबित करने में अपनी एड़ी चोटी का जोर लगा दे और साबित करके ही दम ले

जय हो :)))))))))))

भाई वीनस जी, आपकी व्यंग्यात्मक शैली की टिप्पणी यह स्पष्ट करने के लिए काफी है कि रचनाओं अथवा पुस्तकों की आलोचना या समीक्षा का स्तर साहित्य की परिधि में किस हश्र को प्राप्त हो चुका है.  इस लेख पर आने और सार्थक टिप्पणी करने के लिए हार्दिक धन्यवाद.

वस्तुतः इस प्रस्तुति (लेख) का कारण ही यही है कि समीक्षा के नाम पर व्याप्त उच्छृंखलता पर आनुशासिक लगाम लगे. कतिपय समीक्षक अपनी बातें कहते तो हैं लेकिन समीक्षा की विधा का मूल या वैज्ञानिकता को समझना नहीं चाहते. जबकि यह साहित्यिक विधा कितनी आग्रही और गहन है यह सतत वाचन और अभ्यास के क्रम में ही जाना जा सकता है.

आश्चर्य तो तब होता है जब यह पता चलता है कि तथाकथित समीक्षक अन्यान्य वरिष्ठों की सार्थक समीक्षायें पढ़ा या पढ़ता तक नहीं है. ताकि उसकी दृष्टि तार्किक और प्रासंगिक हो सके.  फिर तो वही कुछ होता है जिसकी ओर आपने व्यंग्यात्मक इशारा किया है.

शुभ-शुभ

आदरणीय सौरभ जी 

पुस्तक समीक्षा के लिए किस संतुलित निष्पक्ष पूर्वाग्रह मुक्त नज़रिए की ज़रुरत है..यह आपने इस आलेख में बहुत स्पष्टता के साथ साझा किया है. समीक्षक की कलम पर बहुत बड़ा दायित्व होता है...रचनाकार की कृति को पाठको से परिचित करवाने का साथ ही रचनाकार के लेखन कर्म को बारीकी से सामने लाने का... लेखक को उसके लेखन के सबसे सुदृढ़ पक्ष के साथ ही कमियों को भी उजागर करना समीक्षक का कर्तव्य है..

ये भी ज़रूर है की समीक्षक का स्वयं का ज्ञान विस्तृत होना साथ ही विषय व विधा की गूढ़ समझ होना ही समीक्षा की विश्वसनीयता को सबल करता है.

न केवल किसी पुस्तक की समीक्षा के लिए... बल्कि हर रचना पर अपनी समझ अनुरूप कुछ कहने के लिए जिन तार्किक कसौटियों पर रचना को परखा जाना चाहिए..आपका यह आलेख हर टिप्पणी कर्ता के लिए भी नज़रिए को सदिश करने का एक सुन्दर अवसर हो सकता है.

लाभान्वित करते इस सार्थक आलेख के लिए हृदयतल से धन्यवाद आदरणीय 

सादर.

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