तृतीय खंड
पाठक के लिए:
ज्ञानी का तीसरा प्रवचन (1)
विष्णु को सब कहें नारायण
लेकिन ये नारायण हैं क्या?
विष्णु करते जग का पालन
पर ये पालनकर्ता हैं क्या?
जैसे संपूर्ण जगत् एक है
वैसे स्मस्त प्राणि एक
जैसे जलचर वनचर एक हैं
वैसे सब की वाणि एक
जैसे अंडज् जे़रज् एक हैं
वैसे सेतज् उदभुज् एक
जैसे पूरा विश्व एक है
वैसे विश्व आत्मा एक
वही आत्मा वही विश्व आत्मा
संचालित करती है
संपुर्ण विश्व
उस के बिना मानव देह सूनी, सब जानते हैं
बिना उसके मानव धड़ है
केवल शव
उसी आत्मा का ज्ञान है विष्व ज्ञान,
संपूर्ण ज्ञान
वही आत्मा है समस्त ज्ञान का स्रोत
आत्मा के आस्तित्व का आभास ही है आत्म ज्ञान
और आत्मा स्वयं ही है ज्ञान का स्रोत
ऐसे आत्मा की अनुभूति
ऐसे विश्व आत्मा का ज्ञान
मिलता है मानव को चेतना के कारण
मानव चेतन्य भी तो है उसी के कारण
मानवीय चेतना ही तो विश्व चेतना है
मानवीय आत्मा ही तो विश्व आत्मा है
मानवीय चेतना से बना है चित
चित से उपजा है मन
मन है विचारों का वाहन
मन ने किया मानव को प्रकृति से दूर
मन मानता है मानव को अलग
‘मैं’ है अलग और शेष है जग
मन ने माना ‘मैं’ को इकाई
चेतना ने कहा नहीं
‘मैं’ है पूर्ण सच्चाई
मन ने माना ‘मैं’ है एक खण्ड
चेतना ने कहा नहीं
‘मैं’ है ‘ब्रहमण्ड’
(शेष बाकी)
Comment
धन्यवाद Ashok Kumar Raktale जी। आप ने सत्य कहा। हम चेतना और मन के द्वन्द में उलझे रहते हैं। आप का यहाँ पधारने का धन्यवाद।
विचारों का अंतर्द्वंद अच्छा है, आपके विचार परिकल्पना को नमन | मेरा मानना है की हम श्रृष्टि के कोई तो रचयिता होगा,
जिसने यह श्रृष्टि रची, उसे रचयिता कहे, ब्रह्म कहे,नियता कहे, रच्नाक्कार कहे या कोई नारायण, इससे क्या फार पड़ता है
आपकी रचना के अगले भाग को पढ़कर और समझने की कौशिश करता हूँ डॉ ओम्कवर जी
आदरणीय डॉ० साहब सबसे पहले तो क्षमा चाहती हूँ कि इस खंड काव्य पर आज ही नज़र पड़ी... पहले के सारे प्रखंड देख समझ लूँ..फिर इस पर वापस आती हूँ..
आदरणीय डाक्टर साहब सादर सुन्दर परिकल्पना की प्रस्तुत, मन और चेतना का द्वन्द वाह! अवश्य ही आगे के भाग को पढ़ने को मन आतुर है और पिछले भाग को भी मैं पढ़ना चाहूँगा.
कुछ ऐसा ही बयान इस कथा में है S K CHOUDHARY ji । लेकिन यहाँ ज्ञानी का अपना ढंग है बयाँ करने का। मेरी कोशिश है मैं पर्तीकों व बिंबों के बीच छुपे अर्थ को सामने लाऊँ। आप का पुनः धन्यवाद।
प्रिय केवल प्रसाद जी
आदरणीय श्री डा0 स्वर्ण जे0 ओंकार जी, विष्णु अर्थात् विसरा हुआ अणु जिसे हम जन्म के साथ ही भूल जाते हैं, वही है ‘विष्णु‘ बहुत ही क्लिष्ट बात को आपने यूं कहा..‘वही आत्मा वही विश्व आत्मा
संचालित करती है
संपुर्ण विश्व
उस के बिना मानव देह सूनीए सब जानते हैं
बिना उसके मानव धड़ है
केवल शव!‘ बहुत ही सुन्दर बात..। बहुत बहुत बधाई।
कृपया अपना सहयोग जरी रखें। हमें आप से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।
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