छोड़ देना मत मुझे मेरे खुदा मझधार में.
सर झुकाए हूँ खडा मैं तेरे ही दरबार में.
राह में बिकते खड़े हैं मुल्क के सब रहनुमा,
रोज ही तो देखते हैं चित्र हम अखबार में.
देश की गलियाँ जनाना आबरू की कब्रगाह,
इक इशारा है बहुत क्या क्या कहें विस्तार में.
मौज में क्यूँ जी रहे हैं दुश्मने इंसानियत,
कौन दे इस प्रश्न का उत्तर भला संसार में.
अह्सने तक्वीम* के भी दाम लगते हैं यहाँ,
नामुनासिब कुछ नहीं है आज कारोबार में.
रात जैसे इक समंदर ख्वाब मेरे नाखुदा,
नाव मेरी कब रही है मेरे ही अधिकार में.
हर दफे मायूस करता आस्ताना यार का,
अब हबीब उम्मीद क्या है आस्ताना ए यार में.
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* अह्सने तक्वीम = खुदा की सबसे कीमती रचना हमारा शरीर
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Comment
सादर आभार डा बाली साहब....
संजय भाई बस इतना ही कहूँगा....बहुत उम्दा !!!
आदरणीय सतीश सर, आदरणीया राजेश कुमारी जी, आदरणीय संदीप भाई, आदरणीया रेखा जोशी जी, सादर आभार स्वीकारें...
आदरणीय संजय जी
राह में बिकते खड़े हैं मुल्क के सब रहनुमा,
रोज ही तो देखते हैं चित्र हम अखबार में..बेहद खूबसूरत गजल ,सभी शेर लाजवाब ,बधाई कबूल करें
हिंदी और उर्दू दोनों को साध के लिखी अपने आप में उम्दा ग़ज़ल
सुन्दर शेर बने हैं
दाद क़ुबूल कीजिये सर जी
अह्सने तक्वीम* के भी दाम लगते हैं यहाँ,
नामुनासिब कुछ नहीं है आज कारोबार में.
रात जैसे इक समंदर ख्वाब मेरे नाखुदा,
नाव मेरी कब रही है मेरे ही अधिकार में----------. एक से बढ़कर एक शेर हैं ग़ज़ल में किन्तु ये दो शेर तो कमाल के हैं लाजबाब हैं बहुत बहुत बधाई संजय हबीब जी
बहुत खूब हबीब साहेब ..... खुबसूरत ख्याल ... दाद कुबूल करें
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