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ग़ज़ल : ग़ज़ल पर ग़ज़ल क्या कहूँ मैं

बहर : फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन

बहरे मुतकारिब मुसद्दस सालिम

 

ग़ज़ल पर ग़ज़ल क्या कहूँ मैं

यही बेहतर चुप रहूँ मैं

 

तेरे रूप की धूप गोरी

तेरे गेसुओं से सहूँ मैं

 

न तेजाब है ना अगन तू

तुझे छूके फिर क्यूँ दहूँ मैं

 

न चिंता मुझे दोजखों की

जमीं पर ही जन्नत लहूँ मैं

 

जो दीवार बन तुझको रोकूँ

कसम मुझको फौरन ढहूँ मैं

 

तेरे प्यार की धार में ही

मरूँ या बचूँ पर बहूँ मैं

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 1, 2011 at 3:16pm

राज जी और सौरभ जी, आप दोनों का बहुत बहुत शुक्रिया।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 1, 2011 at 11:07am

तेरे प्यार की धार में ही

मरूँ या बचूँ पर बहूँ मैं.

दिल को दिल से कहा .. बधाई.

Comment by राज लाली बटाला on August 1, 2011 at 2:20am

न चिंता मुझे दोजखों की

जमीं पर ही जन्नत लहूँ मैं

 

जो दीवार बन तुझको रोकूँ

कसम मुझको फौरन ढहूँ मैं   वाह  !! बहुत उम्दा गजल कही है आपने !! बधाई कबूल करें --लाली

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 16, 2011 at 11:09pm
धन्यवाद नवीन भाई। जर्रानवाजिश का शुक्रिया

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