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न देखी थी कभी सूरत मगर अपना बना बैठे
खता कुछ हो गई मुझसे तभी तुझको गवा बैठे

सजा कर माँग तेरी मैं तुझे अपना बनाया था
तुम्हारे साथ मिल कर मैं घरौंदा इक बसाया था
खिले जब फूल आँगन में हुआ पूरा सभी सपना

तुम्हारे बिन नहीं कोई जमाने में लगे अपना
मगर ये भूल थी मेरी जो तुम से दिल लगा बैठे
ख़ता कुछ हो गई मुझसे तभी तुझको गवा बैठे
न देखी थी कभी सूरत मगर अपना बना बैठे

बना कर सेज़ फूलों की उसे सबने सजाया था

उठा कर मैं जमीं से फिर तुझे उसपर सुलाया था
किये श्रृंगार तुम सोलह बनी दुल्हन वहाँ सोई
विदा जब हो रही थी तब बता तुम क्यों नहीं रोई
छुपा कर नम हुई आँखें तुझे हम खुद जला बैठे
खता कुछ हो गई मुझसे तभी तुमको गवा बैठे

न देखी थी कभी सूरत मगर अपना बना बैठे

सताये दर्द जब कोई तुम्हारी याद आती है
पड़ी सूनी हमारी सेज सनम मुझको रुलाती है
कटे दिन रात अब कैसे वही से तुम जरा देखो
तुम्हारी याद में कैसे तड़प कर मैं गिरा देखो
कसम तुमको भुलाने की सनम हम क्यों उठा बैठे
खता कुछ हो गई मुझसे तभी तुमको गवा बैठे
न देखी थी कभी सूरत मगर अपना बना बैठे

मौलिक एवं अप्रकाशित अखंड गहमरी गहमर गाजीपुर

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Comment by rajesh kumari on February 26, 2015 at 8:25pm

मार्मिक प्रस्तुति सुन्दर ...हार्दिक बधाई अखंड गहमरी जी 

Comment by maharshi tripathi on February 26, 2015 at 5:30pm

सुन्दर और दिल छूने वाली रचना पर आपको बधाई आ.अखंड जी|

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 26, 2015 at 2:59pm

अखंड गहमारी जी

बहुत दिनों बाद पढ़ रहा हूँ  i पर बहुत अच्छ लगा i आपकी रचना में संवेदना भरी हुयी है i  सादर i

Comment by Hari Prakash Dubey on February 25, 2015 at 11:41pm

आदरणीय अखंड गहमरी जी , हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति के लिए ! सादर 


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Comment by गिरिराज भंडारी on February 25, 2015 at 10:13pm

आदरणीय अखंड भाई , बहुत सुन्दर गीत रचना हुई है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ।


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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 25, 2015 at 8:59pm

सुन्दर प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई निवेदित है.

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