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सन्नाटा

एक

सन्नाटा
बुनता है
एक चादर
उदासी की
जिसे
ओढ कर
सो जाता हूं
चुपचाप
रोज
रात के इस
अंधेरे में

दो
अंधेरा
फुसफुसता है
लोरियां कान मे
रात भर
और दे जाता है
एक टोकरा नींद का
जिसे चुन लेते हैं
कुछ भयावह,
व ड़रावने सपने
बुनता है
जिन्हे
सन्नाटा
दिन के उजाले,
रात की चांदनी में

तीन

लिहाजा, चांद से
थोड़ी चांदनी
सूरज से
थोड़ी रोशनी
नोच कर
रख लूं
अपनी जेब मे
फिर नाचूं
प्रथ्वी और
आकाश में

मुकेश इलाहाबादी

मौलिक व अप्रकाशित

Views: 429

Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 13, 2014 at 5:24pm

तीनों क्षणिकायें अपनी उपस्थिति मजबूती से दर्ज करा रही हैं,  आदरंणीय मुकेश भाईजी. एकाकी जीवन के विवश पलों की वास्तविकताओं को कितनी शिद्दत से आपने प्रस्तुत किया है.  वाह वाह !
रात, रात का सन्नाटा, जिये जा रहे एकाकी पल, और त्राण पाने की छटपटाहट को इस विपुलता से सामने लाने के लिए हृदय से बधाई, आदरणीय !
सादर

Comment by Satyanarayan Singh on May 9, 2014 at 4:01pm

इस सार्थक प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई आदरणीय मुकेश जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 2, 2014 at 8:45pm

बहुत खूबसूरत क्षणिकाएं 

अंधेरा
फुसफुसता है
लोरियां कान मे
रात भर
और दे जाता है
एक टोकरा नींद का........वाह 

हार्दिक बधाई आ० मुकेश श्रीवास्तव जी 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 30, 2014 at 11:24am

सुंदर प्रस्तुति , बधाई स्वीकारें आदरणीय मुकेश जी

Comment by MUKESH SRIVASTAVA on April 29, 2014 at 7:07pm

Bahut bahut shukira Ramesh Chauhaan jee, Giriraj jee aur Meenaa Pathak jee is hauslaa aafzaae ke liye


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 29, 2014 at 5:37pm

वाह ॥ भाई मुकेश जी , बहुत सुन्दर , बधाइयाँ ॥

Comment by Meena Pathak on April 29, 2014 at 2:57pm

बहुत सुन्दर ..बधाई आ० मुकेश जी 

Comment by रमेश कुमार चौहान on April 29, 2014 at 2:42pm

सुंदर प्रस्तुति आदरणीय मुकेशजी बधाई

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