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खिजाँ ने गुलशनों में दर्द यूँ बिखेरे हैं (३४ )

खिजाँ ने गुलशनों में दर्द यूँ बिखेरे हैं 
चमन के बागबाँ के बच्चे आज भूखे हैं 
**
बहार तुझ पे है दारोमदार अब सारा 
कि फूल कितने चमन में ख़ुशी के खिलते हैं 
**
अजीब शय है तरक़्क़ी भी लोग जिस के लिए 
ज़मीर बेच के ईमान बेच देते हैं 
**
क़ुबूल कर ली खुदा ने हर इक दुआ जब भी 
दुआ में ग़ैर की खातिर ये हाथ उट्ठे हैं 
**
नहीं है कोई अगर आप के ख़यालों में 
तो इंतज़ार में क्यों चश्म के दरीचे हैं 
**
वो शख़्स काम को अंज़ाम किस तरह देगा 
जिसे न ठीक से आगाज़ के सलीके हैं 
**
किताब-ए-दिल को न पढ़ने का आज दावा कर 
घिसे हैं लफ़्ज़ कहीं और कोरे पन्ने हैं 
**
अजीब खेल है भगवान तेरी क़ुदरत का 
कि जा-ब-जा तेरे दीदार पर भी पहरे हैं 
**
'तुरंत ' अब न ज़माना है चिलमनों में रहें 
हमारी बेटियाँ भी कम नहीं किसी से हैं 
**
गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 5, 2019 at 10:19pm

आदरणीय Samar kabeer साहेब | आदाब ,आपकी हौसला आफ्जाई के लिए दिली शुक्रिया | आपने सही फ़रमाया दो बार बेच का प्रयोग मुझे भी खटक रहा था लेकिन कुछ सुझा नहीं | आपने समस्या हल कर दी | 

Comment by Samar kabeer on March 5, 2019 at 3:51pm

जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'ज़मीर बेच के ईमान बेच देते हैं'

इस मिसरे में 'बेच' शब्द दो बार खटकता है,आप चाहें तो यूँ कर सकते हैं:-

'यहाँ पे देखिये ईमान बेच देते हैं'

Comment by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 5, 2019 at 2:28pm

आदरणीय सतविन्द्र कुमार राणा  जी ,

आपकी सुंदर प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन हुआ। हार्दिक आभार। 

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on March 5, 2019 at 2:22pm

आदरणीय गहलोत जी सादर नमन! हार्दिक बधाई स्वीकारें!

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