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ग़ज़ल : बात करते हैं मगर मर के दिखाते भी नहीं

बह्र : 2122 1122 1122 112/22

अश्क़ आँखों में कभी भूल के लाते भी नहीं
और बर्बादियों का शोक मनाते भी नहीं

पूछ कर ज़िन्दगी में लोग जो आते भी नहीं
इतने बेदर्द हैं जाएँ तो बताते भी नहीं

वो ख़ुशी थी कि जिसे रास नहीं आए हम
और वो ग़म हैं जो हमें छोड़ के जाते भी नहीं

लोग चाहत का गला घोंट तो देते हैं मगर
दफ़्न करते भी नहीं और जलाते भी नहीं

जाइए आपका मैख़ाने में क्या काम है जब
ख़ुद भी पीते नहीं औरों को पिलाते भी नहीं

हमसफ़र बन के मेरे साथ में वो चलते हैं
दो घड़ी साथ कभी वक़्त बिताते भी नहीं

लोग जिसके लिए कल जान भी दे सकते थे
सामने उस ख़ुदा के सर को झुकाते भी नहीं

जा रहा हूँ मैं, कभी फिर किसी से मत कहना
बात करते हैं मगर मर के दिखाते भी नहीं

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by TEJ VEER SINGH on October 26, 2018 at 1:01pm

हार्दिक बधाई आदरणीय महेन्द्र कुमार जी। बेहतरीन गज़ल।

वो ख़ुशी थी कि जिसे रास नहीं आए हम
और वो ग़म हैं जो हमें छोड़ के जाते भी नहीं

लोग चाहत का गला घोंट तो देते हैं मगर
दफ़्न करते भी नहीं और जलाते भी नहीं

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