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नवगीत- यही सोचता रहा घड़ा

स्वर्ण-कलश हो गए लबालब,

क्यों हूँ अब तक रिक्त पड़ा.

जाने कब नंबर आयेगा,

यही सोचता रहा घड़ा.

 

नदिया सूखी, पोखर प्यासी,

तालाबों की वही कहानी.

झरने खूब बहे पर्वत से,

जाने किधर गया सब पानी.

 

गूगल से भी पूछा उसने,

मगर प्रश्न है वहीं खड़ा.

 

घूप्प अँधेरी रही तलहटी,

सूरज उगा नित्य शिखरों पर.

झुलस रहा धरती का आँचल,

सुनता एक न उसकी अम्बर.

 

मेघ सिन्धु पर बरसाने को,  

इंद्र देवता रहा अड़ा.

 

कहाँ कभी बरगद के नीचे,

कोई भी पौधा उग पाया.

कब देती हैं बड़ी मछलियाँ,

छोटी मछली को शरमाया.

 

आखिर में तो वही बचा, जो

अपनी दम पर हुआ बड़ा.

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on August 5, 2018 at 12:04pm

हृदय से आभार आदरणीय आपकी मनभावन प्रतिक्रिया का , मैंने तो अभी अभी लिखना शुरू किया है, अभी मार्गदर्शन देने की स्थिति में तो बिलकुल नहीं , हाँ नेट पर नवगीत के बारे में प्रचुर साहित्य उपलब्ध हैं.

आप तो स्वयं बहुत अच्छा लिखते हैं विधा कोई भी हो बात दिल से दिल तक जानी चाहिये बस ऐसा मानना है मेरा. स्वागत एवं सादर नमन 

Comment by Mohammed Arif on August 3, 2018 at 9:00pm

आदरणीय बसंत कुमार जी आदाब,

                       बहुत ही लाजवाब गीत । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

 नोट:- नवगीत लेखन का मैं भी इच्छुक हूँ । कृपया इसके विधान के बारे में विस्तृत मार्गदर्शन दें ।

कृपया ध्यान दे...

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