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चालीसा मन्त्र इत्यादि

श्री सूर्य नमस्कार मन्त्र
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ॐ मित्राय नम:॥1॥
ॐ रवये नम:॥2॥
ॐ सूर्याय नम:॥3॥
ॐ भानवे नम:॥4॥
ॐ खगाय नम:॥5॥
ॐ पूष्णे नम:॥6॥
ॐ हिरण्यगर्भाय नम:॥7॥
ॐ मरीचये नम:॥8॥
ॐ आदित्याय नम:॥9॥
ॐ सवित्रे नम:॥10॥
ॐ अर्काय नम:॥11॥
ॐ भास्कराय नम:॥12॥

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श्री गायत्री मन्त्र
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ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यम्
भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् ॥

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स्नान मन्त्र
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गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु ॥
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श्री दुर्गा चालीसा
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नमो नमो दुर्गे सुख करनी । नमो नमो अम्बे दुख हरनी ॥
निराकार है ज्योति तुम्हारी । तिहुँ लोक फैली उजियारी ॥
शशि ललाट मुख महा विशाला । नेत्र लाल भृकुटी विकराला ॥
रुप मातु को अधिक सुहावे । दरश करत जन अति सुख पावे ॥
तुम संसार शक्ति लय कीना । पालन हेतु अन्न धन दीना ॥
अन्नपूरना हुई जग पाला । तुम ही आदि सुन्दरी बाला ॥
प्रलय काल सब नाशन हारी । तुम गौरी शिव शंकर प्यारी ॥
शिव योगी तुम्हरे गुण गावैं । ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावैं ॥
रुप सरस्वती को तुम धारा । दे सुबुद्धि ॠषि मुनिन उबारा ॥
धरा रुप नरसिंह को अम्बा । परगत भई फाड़ कर खम्बा ॥
रक्षा करि प्रहलाद बचायो । हिरणाकुश को स्वर्ग पठायो ॥
लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं । श्री नारायण अंग समाहीं ॥
क्षीरसिंधु में करत विलासा । दयासिंधु दीजै मन आसा ॥
हिंगलाज में तुम्हीं भवानी । महिमा अमित न जात बखानी ॥
मातंगी धूमावती माता । भुवनेश्वरि बगला सुख दाता ॥
श्री भैरव तारा जग तारिणी । क्षिन्न लाल भवदुख निवारिणी ॥
केहरि वाहन सोहे भवानी ।लांगुर वीर चलत अगवानी ।।
कर में खप्पर खड़ग विराजै । जाको देख काल डर भाजै ॥
सोहे अस्त्र और त्रिसूला । जाते उठत शत्रु हिय शूला ॥
नगरकोट में तुम्हीं विराजत । तिहुँ लोक में डंका बाजत ॥
शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे । रक्तबीज शंखन संहारे ॥
महिषासुर नृप अति अभिमानी । जेहि अघ भार मही अकुलानी ॥
रुप कराल काली को धारा । सेन सहित तुम तिहि संहारा ॥
परी गाढ़ सन्तन पर जब जब । भई सहाय मातु तुम तब तब ॥
अमर पुरी औरों सब लोका । तब महिमा सब रहे अशोका ॥
ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी । तुम्हें सदा पूजैं नर नारी ॥
प्रेम भक्ति से जो जस गावै । दुःख दारिद्र निकट नहीं आवै ॥
ध्यावें तुम्हें जो नर मन लाई । जन्म मरण ताको छुट जाई ॥
जोगी सुर मुनि कहत पुकारी । योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी ॥
शंकर आचारज तप कीनों । काम क्रोध जीति सब लीनों ॥
निशि दिन ध्यान धरो शंकर को । काहु काल नहिं सुमिरो तुमको ॥
शक्ति रुप को मरम न पायो । शक्ति गई तब मन पछतायो ॥
शरणागत हुई कीर्ति बखानी । जै जै जै जगदम्ब भवानी ॥
भई प्रसन्न आदि जगदम्बा । दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा ॥
मोको मात कष्ट अति घेरो । तुम बिन कौन हरे दुःख मेरो ॥
आशा तृष्णा निपट सतावै । रिपु मूरख मोहि अति डर पावै ॥
शत्रु नाश कीजै महारानी । सुमिरौ इकचित तुम्हें भवानी ॥
करो कृपा हे मातु दयाला । ॠद्धि सिद्धि दे करहु निहाला ॥
जब लगि जियौं दया फल पाऊँ । तुम्हरो जस मैं सदा सुनाऊँ ॥
दुर्गा चालीसा जो कोई गावै । सब सुख भोग परम पद पावै ॥
देवीदास शरण निज जानी । करहु कृपार जगदम्बा भवानी ॥
***

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श्री हनुमान चालीसा

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दोहा
श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि ।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि ॥
बुध्दिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार ॥
चौपाई
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर । जय कपिस तिहुँ लोक उजागर ॥
राम दूत अतुलित बल धामा । अंजनि-पुत्र पवन सुत नामा ॥
महाबीर बिक्रम बजरंगी । कुमति निवार सुमति के संगी ॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा । कानन कुंडल कुंचित केसा ॥
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै कांधे मूँज जनेऊ साजै ॥
संकर सुवन केसरीनंदन । तेज प्रताप महा जग बंदन ॥
बिद्यावान गुनी अति चातुर । राम काज करिबे को आतुर ॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लषन सीता मन बसिया ॥
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा । बिकट रूप धरि लंक जरावा ॥
भीम रूप धरि असुर सँहारे । रामचंद्र के काज सँवारे ॥
लाय सजीवन लखन जियाये । श्रीरघुबीर हरषि उर लाये ॥
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई । तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं । अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं ॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा । नारद सारद सहित अहीसा ॥
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते । कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा । राम मिलाय राज पद दीन्हा ॥
तुम्हरो मन्त्र बिभीषन माना। लंकेस्वर भए सब जग जाना ॥
जुग सहस्त्र जोजन पर भानू । लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं । जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं॥
दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥
राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥
सब सुख लहै तुम्हारी सरना । तुम रच्छक काहू को डर ना ॥
आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हाँक तें काँपै ॥
भूत पिसाच निकट नहिँ आवै । महाबीर जब नाम सुनावै ॥
नासै रोग हरै सब पीरा । जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥
संकट तें हनुमान छुडावै । मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥
सब पर राम तपस्वी राजा । तिन के काज सकल तुम साजा ॥
और मनोरथ जो कोइ लावै । सोइ अमित जीवन फल पावै ॥
चारों जुग परताप तुम्हारा । है परसिद्ध जगत उजियारा ॥
साधु संत के तुम रखवारे । असुर निकंदन राम दुलारे ॥
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता । अस बर दीन जानकी माता ॥
राम रसायन तुम्हरे पासा । सदा रहो रघुपति के दासा ॥
तुम्हरे भजन राम को पावै । जनम जनम के दुख बिसरावै ॥
अंत काल रघुबर पुर जाई । जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥
और देवता चित्त न धरई । हनुमत सेंइ सर्ब सुख करई ॥
संकट कटै मिटै सब पीरा । जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥
जै जै जै हनुमान गोसाईं । कृपा करहु गुरु देव की नाईं ॥
जो सत बर पाठ कर कोई । छूटहि बंदि महा सुख होई ॥
जो यह पढ़ै हनुमान चलीसा । होय सिद्धि साखी गौरीसा ॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा । कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ॥

दोहा
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप ।
राम लषन सीता सहित,हृदय बसहु सुर भूप ॥
***

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श्री शनि चालीसा

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॥ दोहा ॥

जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल ।
दीनन के दुःख दूर करि , कीजै नाथ निहाल ॥1॥
जय जय श्री शनिदेव प्रभु , सुनहु विनय महाराज ।
करहु कृपा हे रवि तनय , राखहु जन की लाज ॥2॥

जयति जयति शनिदेव दयाला । करत सदा भक्तन प्रतिपाला ॥
चारि भुजा, तनु श्याम विराजै । माथे रतन मुकुट छवि छाजै ॥
परम विशाल मनोहर भाला । टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला ॥
कुण्डल श्रवन चमाचम चमके । हिये माल मुक्तन मणि दमकै ॥
कर में गदा त्रिशूल कुठारा । पल बिच करैं अरिहिं संहारा ॥
पिंगल, कृष्णो, छाया, नन्दन । यम, कोणस्थ, रौद्र, दुःख भंजन ॥
सौरी, मन्द शनी दश नामा । भानु पुत्र पूजहिं सब कामा ॥
जापर प्रभु प्रसन्न हवैं जाहीं । रंकहुं राव करैं क्षण माहीं ॥
पर्वतहू तृण होइ निहारत । तृणहू को पर्वत करि डारत ॥
राज मिलत वन रामहिं दीन्हयो । कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो ॥
वनहुं में मृग कपट दिखाई । मातु जानकी गई चुराई ॥
लषणहिं शक्ति विकल करिडारा । मचिगा दल में हाहाकारा ॥
रावण की गति-मति बौराई । रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई ॥
दियो कीट करि कंचन लंका । बजि बजरंग बीर की डंका ॥
नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा । चित्र मयूर निगलि गै हारा ॥
हार नौलखा लाग्यो चोरी । हाथ पैर डरवायो तोरी ॥
भारी दशा निकृष्ट दिखायो । तेलहिं घर कोल्हू चलवायो ॥
विनय राग दीपक महँ कीन्हयों । तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों ॥
हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी । आपहुं भरे डोम घर पानी ॥
तैसे नल पर दशा सिरानी । भूंजी-मीन कूद गई पानी ॥
श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई । पारवती को सती कराई ॥
तनिक विकलोकत ही करि रीसा । नभ उड़ि गतो गौरिसुत सीसा ॥
पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी । बची द्रोपदी होति उधारी ॥
कौरव के भी गति मति मारयो । युद्ध महाभारत करि डारयो ॥
रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला । लेकर कूदि परयो पाताला ॥
शेष देव-लखि विनती लाई । रवि को मुख ते दियो छुड़ाई ॥
वाहन प्रभु के सात सुजाना । जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना ॥
जम्बुक सिह आदि नख धारी । सो फल ज्योतिष कहत पुकारी ॥
गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं । हय ते सुख सम्पत्ति उपजावै ॥
गर्दभ हानि करै बहु काजा । सिह सिद्ध्कर राज समाजा ॥
जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै । मृग दे कष्ट प्राण संहारै ॥
जब आवहिं स्वान सवारी । चोरी आदि होय डर भारी ॥
तैसहि चारि चरण यह नामा । स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा ॥
लौह चरण पर जब प्रभु आवैं । धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं ॥
समता ताम्र रजत शुभकारी । स्वर्ण सर्वसुख मंगल भारी ॥
जो यह शनि चरित्र नित गावै । कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै ॥
अद्भुत नाथ दिखावैं लीला । करैं शत्रु के नशि बलि ढीला ॥
जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई । विधिवत शनि ग्रह शांति कराई ॥
पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत । दीप दान दै बहु सुख पावत ॥
कहत राम सुन्दर प्रभु दासा । शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा ॥

॥ दोहा ॥

पाठ शनिश्चर देव को, की हों 'भक्त' तैयार ।
करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार ॥

॥इति श्री शनि चालीसा॥

-:##############:-

शान्ति मन्त्र
~~~
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:
पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति: ।
वनस्पतये: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:
सर्वँ शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि ॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on July 10, 2010 at 12:45am
गुरु जी बहुत ही सार्थक पहल लेकर आये है आप इस बार.....सभी देवी देवताओं को प्रसन्न करने वाले मन्त्रों को एक साथ देखना एक सुखद अनुभव है..........एकदम भक्ति रस में सराबोर......बहुत बहुत शुक्रिया

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 10, 2010 at 12:38am
Badhiya sankalan hai guru jee,
Comment by Rash Bihari Ravi on July 9, 2010 at 3:30pm
श्री गणेश चालीसा
***
जय जय जय वंदन भुवन, नंदन गौरिगणेश । दुख द्वंद्वन फंदन हरन,सुंदर सुवन महेश ॥
जयति शंभु सुत गौरी नंदन । विघ्न हरन नासन भव फंदन ॥
जय गणनायक जनसुख दायक । विश्व विनायक बुद्धि विधायक ॥
एक रदन गज बदन विराजत । वक्रतुंड शुचि शुंड सुसाजत ॥
तिलक त्रिपुण्ड भाल शशि सोहत । छबि लखि सुर नर मुनि मन मोहत ॥
उर मणिमाल सरोरुह लोचन । रत्न मुकुट सिर सोच विमोचन ॥
कर कुठार शुचि सुभग त्रिशूलम् । मोदक भोग सुगंधित फूलम् ॥
सुंदर पीताम्बर तन साजित । चरण पादुका मुनि मन राजित ॥
धनि शिव सुवन भुवन सुख दाता । गौरी ललन षडानन भ्राता ॥
ॠद्धि सिद्धि तव चंवर सुढारहिं । मूषक वाहन सोहित द्वारहिं ॥
तव महिमा को बरनै पारा । जन्म चरित्र विचित्र तुम्हारा ॥
एक असुर शिवरुप बनावै । गौरिहिं छलन हेतु तह आवै ॥
एहि कारण ते श्री शिव प्यारी । निज तन मैल मूर्ति रचि डारि ॥
सो निज सुत करि गृह रखवारे । द्धारपाल सम तेहिं बैठारे ॥
जबहिं स्वयं श्री शिव तहं आए । बिनु पहिचान जान नहिं पाए ॥
पूछ्यो शिव हो किनके लाला । बोलत भे तुम वचन रसाला ॥
मैं हूं गौरी सुत सुनि लीजै । आगे पग न भवन हित दीजै ॥
आवहिं मातु बूझि तब जाओ । बालक से जनि बात बढ़ाओ ॥
चलन चह्यो शिव बचन न मान्यो । तब ह्वै क्रुद्ध युद्ध तुम ठान्यो ॥
तत्क्षण नहिं कछु शंभु बिचारयो । गहि त्रिशूल भूल वश मारयो ॥
शिरिष फूल सम सिर कटि गयउ । छट उड़ि लोप गगन महं भयउ ॥
गयो शंभु जब भवन मंझारी । जहं बैठी गिरिराज कुमारी ॥
पूछे शिव निज मन मुसकाये । कहहु सती सुत कहं ते जाये ॥
खुलिगे भेद कथा सुनि सारी । गिरी विकल गिरिराज दुलारी ॥
कियो न भल स्वामी अब जाओ । लाओ शीष जहां से पाओ ॥
चल्यो विष्णु संग शिव विज्ञानी । मिल्यो न सो हस्तिहिं सिर आनी ॥
धड़ ऊपर स्थित कर दीन्ह्यो । प्राण वायु संचालन कीन्ह्यो ॥
श्री गणेश तब नाम धरायो । विद्या बुद्धि अमर वर पायो ॥
भे प्रभु प्रथम पूज्य सुखदायक । विघ्न विनाशक बुद्धि विधायक ॥
प्रथमहिं नाम लेत तव जोई । जग कहं सकल काज सिध होई ॥
सुमिरहिं तुमहिं मिलहिं सुख नाना । बिनु तव कृपा न कहुं कल्याना ॥
तुम्हरहिं शाप भयो जग अंकित । भादौं चौथ चंद्र अकलंकित ॥
जबहिं परीक्षा शिव तुहिं लीन्हा । प्रदक्षिणा पृथ्वी कहि दीन्हा ॥
षड्मुख चल्यो मयूर उड़ाई । बैठि रचे तुम सहज उपाई ॥
राम नाम महि पर लिखि अंका । कीन्ह प्रदक्षिण तजि मन शंका ॥
श्री पितु मातु चरण धरि लीन्ह्यो । ता कहं सात प्रदक्षिण कीन्ह्यो ॥
पृथ्वी परिक्रमा फल पायो । अस लखि सुरन सुमन बरसायो ॥
'सुंदरदास' राम के चेरा । दुर्वासा आश्रम धरि डेरा ॥
विरच्यो श्रीगणेश चालीसा । शिव पुराण वर्णित योगीशा ॥
नित्य गजानन जो गुण गावत । गृह बसि सुमति परम सुख पावत ॥
जन धन धान्य सुवन सुखदायक । देहिं सकल शुभ श्री गणनायक ॥
श्री गणेश यह चालिसा,पाठ करै धरि ध्यान । नित नव मंगल मोद लहि,मिलै जगत सम्मान ॥
द्धै सहस्त्र दस विक्रमी, भाद्र कृष्ण तिथि गंग । पूरन चालीसा भयो, सुंदर भक्ति अभंग ॥
Comment by Rash Bihari Ravi on July 9, 2010 at 3:29pm
श्री कृष्ण चालीसा
***
॥ दोहा ॥

वंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम ।
अरूण अधर जनु बिम्ब फल, नयन कमल अभिराम ॥
पूर्ण इन्दु अरविन्द मुख, पीताम्बर शुभ साज ।
जय मन्मोहन मदन छवि, कृष्ण चन्द्र महाराज ॥

॥ चौपाई ॥

जय यदुनन्दन जय जगवन्दन । जय वसुदेव देवकी नन्दन ॥
जय यसुदा सुत नन्द दुलारे । जय प्रभु भक्तन के दृग तारे ॥
जय नटनागर नाथ नथइया । कृष्ण कन्हैया धेनु चरइया ॥
पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो । आओ दीनन कष्ट निवारो ॥
वंशी मधुर अधर धरि टेरी । होवे पूर्ण विनय यह मेरी ॥
आओ हरि पुनि माखन चाखो । आज लाज भारत की राखो ॥
गोल कपोल चिबुक अरूणारे । मृदु मुस्कान मोहिनी डारे ॥
रंजित राजिव नयन विशाला । मोर मुकुट बैजन्ती माला ॥
कुण्डल श्रवण पीतपट आछे । कटि किंकणी काछन काछे ॥
नील जलज सुन्दर तनु सोहै । छवि लखि सुर नर मुनि मन मोहै ॥
मस्तक तिलक अलक घुंघराले । आओ कृष्ण बांसुरी वाले ॥
करि पय पान, पूतनहिं तारयो । अका बका कागा सुर मारयो ॥
मधुवन जलत अगिन जब ज्वाला । भै सीतल,लखतहिं नन्दलाला ॥
सुरपति जब ब्रज चढ़यो रिसाई । मूसर धार वारि वर्षाई ॥
लखत-लखत ब्रज चहन बहायो । गोवर्धन नख धारि बचायो ॥
लखि यसुदामन भ्रम अधिकाई । मुख महं चौदह भुवन दिखाई ॥
दुष्ट कंस अति उधम मचायो । कोटि कमल जब फूल मंगायो ॥
नाथि कालियहिं तब तुम लीन्हें । चरण चिन्ह दे निर्भय कीन्हें ॥
करि गोपिन संग रास विलासा । सबकी पूरण करि अभिलाषा ॥
केतिक महा असुर संहार्यो । कंसहि केस पकड़ि दै मार्यो ॥
मात-पिता की बन्दि छुड़ाई । उग्रसेन कहं राज दिलाई ॥
महि से मृतक छहों सुत लायो । मातु देवकी शोक मिटायो ॥
भौमासुर मुर दैत्य संहारी । लाए षट् दस सहस कुमारी ॥
दे भीमहिं तृणचीर इशारा । जरासंघ राक्षस कहं मारा ॥
असुर बकासुर आदिक मार्यो । भक्तन के तब कष्ट निवार्यो ॥
दीन सुदामा के दुःख टार्यो । तंदुल तीन मूठि मुख डार्यो ॥
प्रेम के साग विदुर घर मांगे । दुर्योधन के मेवा त्यागे ॥
लखी प्रेम की महिमा भारी । ऐसे श्याम दीन हितकारी ॥
भारत में पारथ रथ हांके । लिए चक्र कर नहिं बल थांके ॥
निज गीता के ज्ञान सुनाए । भक्तन हृदय सुधा वर्षाए ॥
मीरा थी ऐसी मतवाली । विष पी गई बजा कर ताली ॥
राणा भेजा सांप पिटारी । शालिग्राम बने बनवारी ॥
निज माया तुम विधिहिं दिखायो । उर ते संशय सकल मिटायो ॥
तव शत निन्दा करि तत्काला । जीवन मुक्त भयो शिशुपाला ॥
जबहिं द्रोपदी टेर लगाई । दीनानाथ लाज अब जाई ॥
तुरतहिं बसन बने नन्दलाला । बढ़े चीर भए अरि मुंह काला ॥
अस अनाथ के नाथ कन्हैया । डूबत भंवर बचावत नइया ॥
सुन्दरदास आस उर धारी । दयादृष्टि कीजै बनवारी ॥
नाथ सकल मम कुमति निवारो । क्षमहु बेगि अपराध हमारो ॥
खोलो पट अब दर्शन दीजै । बोलो कृष्ण कन्हैया की जै ॥

॥ दोहा ॥

यह चालीसा कृष्ण का, पाठ करे धारि ।
अष्टसिद्धि नवनिद्धि फल, लहै पदारथ चारि ॥
Comment by Rash Bihari Ravi on July 9, 2010 at 3:29pm
श्री सरस्वती चालीसा
***
॥ दोहा ॥

जनक जननि पद कमल रज, निज मस्तक पर धारि ।
बन्दौं मातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि ॥1॥
पूर्ण जगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु ।
रामसागर के पाप को, मातु तुही अब हन्तु ॥2॥

जय श्री सकल बुद्धि बलरासी । जय सर्वज्ञ अमर अविनासी ॥
जय जय जय वीणाकर धारी । करती सदा सुहंस सवारी ॥
रूप चतुर्भुजधारी माता । सकल विश्व अन्दर विख्याता ॥
जग में पाप बुद्धि जब होती । जबहि धर्म की फीकी ज्योती ॥
तबहि मातु ले निज अवतारा । पाप हीन करती महि तारा ॥
बाल्मीकि जी थे बहम ज्ञानी । तव प्रसाद जानै संसारा ॥
रामायण जो रचे बनाई । आदि कवी की पदवी पाई ॥
कालिदास जो भये विख्याता । तेरी कृपा दृष्टि से माता ॥
तुलसी सूर आदि विद्धाना । भये और जो ज्ञानी नाना ॥
तिन्हहिं न और रहेउ अवलम्बा । केवल कृपा आपकी अम्बा ॥
करहु कृपा सोइ मातु भवानी । दुखित दीन निज दासहि जानी ॥
पुत्र करै अपराध बहूता । तेहि न धरइ चित सुन्दर माता ॥
राखु लाज जननी अब मेरी । विनय करूं बहु भांति घनेरी ॥
मैं अनाथ तेरी अवलंबा । कृपा करउ जय जय जगदंबा ॥
मधु कैटभ जो अति बलवाना । बाहुयुद्ध विष्णू ते ठाना ॥
समर हजार पांच में घोरा । फिर भी मुख उनसे नहिं मोरा ॥
मातु सहाय भई तेहि काला । बुद्धि विपरीत करी खलहाला ॥
तेहि ते मृत्यु भई खल केरी । पुरवहु मातु मनोरथ मेरी ॥
चंड मुण्ड जो थे विख्याता । छण महुं संहारेउ तेहि माता ॥
रक्तबीज से समरथ पापी । सुर-मुनि हृदय धरा सब कांपी ॥
काटेउ सिर जिम कदली खम्बा । बार बार बिनवउं जगदंबा ॥
जग प्रसिद्ध जो शुंभ निशुंभा । छिन में बधे ताहि तू अम्बा ॥
भरत-मातु बुधि फेरेउ जाई । रामचंद्र बनवास कराई ॥
एहि विधि रावन वध तुम कीन्हा । सुर नर मुनि सब कहुं सुख दीन्हा ॥
को समरथ तव यश गुन गाना । निगम अनादि अनंत बखाना ॥
विष्णु रूद्र अज सकहिं न मारी । जिनकी हो तुम रक्षाकारी ॥
रक्त दन्तिका और शताक्षी । नाम अपार है दानव भक्षी ॥
दुर्गम काज धरा पर कीन्हा । दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा ॥
दुर्ग आदि हरनी तू माता । कृपा करहु जब जब सुखदाता ॥
नृप कोपित जो मारन चाहै । कानन में घेरे मृग नाहै ॥
सागर मध्य पोत के भंगे । अति तूफान नहिं कोऊ संगे ॥
भूत प्रेत बाधा या दुःख में । हो दरिद्र अथवा संकट में ॥
नाम जपे मंगल सब होई । संशय इसमें करइ न कोई ॥
पुत्रहीन जो आतुर भाई । सबै छांड़ि पूजें एहि माई ॥
करै पाठ नित यह चालीसा । होय पुत्र सुन्दर गुण ईसा ॥
धूपादिक नैवेद्य चढावै । संकट रहित अवश्य हो जावै ॥
भक्ति मातु की करै हमेशा । निकट न आवै ताहि कलेशा ॥
बंदी पाठ करें शत बारा । बंदी पाश दूर हो सारा ॥
करहु कृपा भवमुक्ति भवानी । मो कहं दास सदा निज जानी ॥

॥ दोहा ॥
माता सूरज कान्ति तव , अंधकार मम रूप ।
डूबन ते रक्षा करहु , परूं न मैं भव-कूप ॥
बल बुद्धि विद्या देहुं मोहि, सुनहु सरस्वति मातु ।
अधम रामसागरहिं तुम, आश्रय देउ पुनातु ॥
Comment by Rash Bihari Ravi on July 9, 2010 at 3:27pm
श्री काली चालीसा
***

जयकाली कलिमलहरण, महिमा अगम अपार ।
महिष मर्दिनी कालिका , देहु अभय अपार ॥

अरि मद मान मिटावन हारी । मुण्डमाल गल सोहत प्यारी ॥
अष्टभुजी सुखदायक माता । दुष्टदलन जग में विख्याता ॥
भाल विशाल मुकुट छवि छाजै । कर में शीश शत्रु का साजै ॥
दूजे हाथ लिए मधु प्याला । हाथ तीसरे सोहत भाला ॥
चौथे खप्पर खड्ग कर पांचे । छठे त्रिशूल शत्रु बल जांचे ॥
सप्तम करदमकत असि प्यारी । शोभा अद्भुत मात तुम्हारी ॥
अष्टम कर भक्तन वर दाता । जग मनहरण रूप ये माता ॥
भक्तन में अनुरक्त भवानी । निशदिन रटें ॠषी-मुनि ज्ञानी ॥
महशक्ति अति प्रबल पुनीता । तू ही काली तू ही सीता ॥
पतित तारिणी हे जग पालक । कल्याणी पापी कुल घालक ॥
शेष सुरेश न पावत पारा । गौरी रूप धर्यो इक बारा ॥
तुम समान दाता नहिं दूजा । विधिवत करें भक्तजन पूजा ॥
रूप भयंकर जब तुम धारा । दुष्टदलन कीन्हेहु संहारा ॥
नाम अनेकन मात तुम्हारे । भक्तजनों के संकट टारे ॥
कलि के कष्ट कलेशन हरनी । भव भय मोचन मंगल करनी ॥
महिमा अगम वेद यश गावैं । नारद शारद पार न पावैं ॥
भू पर भार बढ्यौ जब भारी । तब तब तुम प्रकटीं महतारी ॥
आदि अनादि अभय वरदाता । विश्वविदित भव संकट त्राता ॥
कुसमय नाम तुम्हारौ लीन्हा । उसको सदा अभय वर दीन्हा ॥
ध्यान धरें श्रुति शेष सुरेशा । काल रूप लखि तुमरो भेषा ॥
कलुआ भैंरों संग तुम्हारे । अरि हित रूप भयानक धारे ॥
सेवक लांगुर रहत अगारी । चौसठ जोगन आज्ञाकारी ॥
त्रेता में रघुवर हित आई । दशकंधर की सैन नसाई ॥
खेला रण का खेल निराला । भरा मांस-मज्जा से प्याला ॥
रौद्र रूप लखि दानव भागे । कियौ गवन भवन निज त्यागे ॥
तब ऐसौ तामस चढ़ आयो । स्वजन विजन को भेद भुलायो ॥
ये बालक लखि शंकर आए । राह रोक चरनन में धाए ॥
तब मुख जीभ निकर जो आई । यही रूप प्रचलित है माई ॥
बाढ्यो महिषासुर मद भारी । पीड़ित किए सकल नर-नारी ॥
करूण पुकार सुनी भक्तन की । पीर मिटावन हित जन-जन की ॥
तब प्रगटी निज सैन समेता । नाम पड़ा मां महिष विजेता ॥
शुंभ निशुंभ हने छन माहीं । तुम सम जग दूसर कोउ नाहीं ॥
मान मथनहारी खल दल के । सदा सहायक भक्त विकल के ॥
दीन विहीन करैं नित सेवा । पावैं मनवांछित फल मेवा ॥
संकट में जो सुमिरन करहीं । उनके कष्ट मातु तुम हरहीं ॥
प्रेम सहित जो कीरति गावैं । भव बन्धन सों मुक्ती पावैं ॥
काली चालीसा जो पढ़हीं । स्वर्गलोक बिनु बंधन चढ़हीं ॥
दया दृष्टि हेरौ जगदम्बा । केहि कारण मां कियौ विलम्बा ॥
करहु मातु भक्तन रखवाली । जयति जयति काली कंकाली ॥
सेवक दीन अनाथ अनारी । भक्तिभाव युति शरण तुम्हारी ॥

॥ दोहा ॥

प्रेम सहित जो करे, काली चालीसा पाठ ।
तिनकी पूरन कामना, होय सकल जग ठाठ ॥
Comment by Rash Bihari Ravi on July 9, 2010 at 3:27pm
श्री शिव चालीसा
***
दोहा
श्री गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान ।
कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान ॥

जय गिरिजा पति दीन दयाला । सदा करत सन्तन प्रतिपाला ॥
भाल चन्द्रमा सोहत नीके । कानन कुण्डल नागफनी के॥
अंग गौर शिर गंग बहाये । मुण्डमाल तन छार लगाये ॥
वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे । छवि को देख नाग मुनि मोहे ॥
मैना मातु की ह्वै दुलारी । बाम अंग सोहत छवि न्यारी ॥
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी । करत सदा शत्रुन क्षयकारी ॥
नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे । सागर मध्य कमल हैं जैसे॥
कार्तिक श्याम और गणराऊ । या छवि को कहि जात न काऊ ॥
देवन जबहीं जाय पुकारा । तब ही दुख प्रभु आप निवारा ॥
किया उपद्रव तारक भारी । देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी ॥
तुरत षडानन आप पठायउ । लवनिमेष महँ मारि गिरायउ ॥
आप जलंधर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा ॥
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई । सबहिं कृपा कर लीन बचाई ॥
किया तपहिं भागीरथ भारी । पुरब प्रतिज्ञा तासु पुरारी ॥
दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं । सेवक स्तुति करत सदाहीं ॥
वेद नाम महिमा तव गाई । अकथ अनादि भेद नहिं पाई ॥
प्रगट उदधि मंथन में ज्वाला । जरे सुरासुर भये विहाला ॥
कीन्ह दया तहँ करी सहाई । नीलकण्ठ तब नाम कहाई ॥
पूजन रामचंद्र जब कीन्हा । जीत के लंक विभीषण दीन्हा ॥
सहस कमल में हो रहे धारी । कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी ॥
एक कमल प्रभु राखेउ जोई । कमल नयन पूजन चहं सोई ॥
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर । भये प्रसन्न दिए इच्छित वर ॥
जय जय जय अनंत अविनाशी । करत कृपा सब के घटवासी ॥
दुष्ट सकल नित मोहि सतावै । भ्रमत रहे मोहि चैन न आवै ॥
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो । यहि अवसर मोहि आन उबारो ॥
लै त्रिशूल शत्रुन को मारो । संकट से मोहि आन उबारो ॥
मातु पिता भ्राता सब कोई । संकट में पूछत नहिं कोई ॥
स्वामी एक है आस तुम्हारी । आय हरहु अब संकट भारी ॥
धन निर्धन को देत सदाहीं । जो कोई जांचे वो फल पाहीं ॥
अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी । क्षमहु नाथ अब चूक हमारी ॥
शंकर हो संकट के नाशन । मंगल कारण विघ्न विनाशन ॥
योगी यति मुनि ध्यान लगावैं । नारद शारद शीश नवावैं ॥
नमो नमो जय नमो शिवाय । सुर ब्रह्मादिक पार न पाय ॥
जो यह पाठ करे मन लाई । ता पार होत है शम्भु सहाई ॥
ॠनिया जो कोई हो अधिकारी । पाठ करे सो पावन हारी ॥
पुत्र हीन कर इच्छा कोई । निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई ॥
पण्डित त्रयोदशी को लावे । ध्यान पूर्वक होम करावे ॥
त्रयोदशी ब्रत करे हमेशा । तन नहीं ताके रहे कलेशा ॥
धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे । शंकर सम्मुख पाठ सुनावे ॥
जन्म जन्म के पाप नसावे । अन्तवास शिवपुर में पावे ॥
कहे अयोध्या आस तुम्हारी । जानि सकल दुःख हरहु हमारी॥
॥ दोहा ॥
नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीसा।
तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश ॥
मगसर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान ।
अस्तुति चालीसा शिवहि, पूर्ण कीन कल्याण ॥
॥ इति शिव चालीसा ॥
Comment by Rash Bihari Ravi on July 9, 2010 at 3:25pm
श्री लक्ष्मी चालीसा
***
॥ दोहा ॥

मातु लक्ष्मी करि कृपा, करो हृदय में बास ।
मनोकामना सिद्ध करि, पुरवहु मेरी आस ॥

॥ सोरठा ॥

यही मोर अरदास, हाथ जोद विनती करूं ।
सब विधि करौ सुपास, जय जननी जगदम्बिका ॥

सिन्धु सुता मैं सुमिरौं तोही । ज्ञान बुद्धि विद्या दो मोही ॥
तुम समान नहिं कोउ उपकारी । सब विधि पुरवहु आस हमारी ॥
जै जै जै जननी जगदम्बा । सबकी तुम ही हो अवलम्बा ॥
तुम ही हो घट घट की वासी । विनती यही हमारी खासी ॥
जग जननी जय सिन्धु कुमारी । दीनन की तुम हो हितकारी ॥
विनवौं नित्य तुमहिं महरानी । कृपा करौ जग जननि भवानी ॥
केहि विधि स्तुति करौं तिहारी । सुधि लीजै अपराध बिसारी ॥
कृपा दृष्टि चितवौ मम ओरी । जग जननी विनती मोरी ॥
ज्ञान बुद्धि जय सुख की दाता । संकट हरो हमारी माता ॥
क्षीर सिन्धु जब विष्णु मथायो । चौदह रत्न सिन्धु में पायो ॥
चौदह रत्न में तुम सुख्ररासी । सेवा कियो प्रभू बन दासी ॥
जब जब जन्म जहां प्रभु लीन्हा । रूप बदल तहं सेवा कीन्हा ॥
स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा । लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा ॥
तब तुम प्रगट जनक्पुर माहीं । सेवा कियो हृदय पुलकाहीं ॥
अपनाया तोहि अन्तर्यामी । विश्वविदित त्रिभुवन की स्वामी ॥
तुम सम प्रबल शक्ति नहिं आनी । कहंलौ महिमा कहौं बखानी ॥
मन क्रम वचन करै सेवकाई । मन इच्छित वांछित फल पाई ॥
तजि छल कपट और चतुराई । पूजहिं विविध भांति मन लाई ॥
और हाल मैं कहौं बिझाई । जो यह पाठ करै मन लाई ॥
ताको कोई कष्ट न होई । मन इच्छित पावै फल सोई ॥
त्राहि त्राहि जय दुःख निवारिणि । त्रिविध ताप भव बंधन हारिणि ॥
जो यह पढ़े और पढ़ावै । ध्यान लगाकर सुनै सुनावै ॥
ताको कोइ न रोग सतावै । पुत्रादिक धन सम्पति पावै ॥
पुत्रहीन अरू संपतिहीना । अन्ध बधिर कोढ़ी अति दीना ॥
विप्र बोलाय कै पाठ करावै । शंका दिल में कभी न लावै ॥
पाठ करावै दिन चालीसा । ता पर कृपा करैं गौरीशा ॥
सुख सम्पत्ति बहुत सी पावै । कमी नहीं काहू की आवै ॥
बारह मास करै जो पूजा । तेहि सम धन्य और नहिं दूजा ॥
प्रतिदिन पाठ करै मन माहीं । उन सम कोउ जग में कहुं नाहीं ॥
बहुविधि क्या मैं करौं बड़ाई । लेय परीक्षा ध्यान लगाई ॥
करि विश्वास करै व्रत नेमा । होय सिद्ध उपजै उर प्रेमा ॥
जय जय जय लक्ष्मी भवानी । सब में व्यापित हो गुण खानी ॥
तुम्हरो तेज प्रबल जग माहीं । तुम सम कोउ दयालु कहुं नाहीं ॥
मोहिं अनाथ की सुधि अब लीजै । संकट काटि भक्ति मोहिं दीजै ॥
भूल चूक करि क्षमा हमारी । दर्शन दीजै दशा निहारी ॥
बिन दर्शन व्याकुल अधिकारी । तुमहिं अक्षत दुःख सहते भारी ॥
नहिं मोहिं ज्ञान बुद्धि है तन में । सब जानत हो अपने मन में ॥
रूप चतुर्भुज करके धारण । कष्ट मोर अब करहु निवारण ॥
केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई । ज्ञान बुद्धि मोहिं नहिं अधिकाई ॥

॥ दोहा ॥

त्राहि-त्राहि दुःख हारिणी, हरो बेगि सब त्रास ।
जयति-जयति जय लक्ष्मी, करो शत्रु का नाश ॥
रामदास धरि ध्यान नित, विनय करत कर जोर ।
मातु लक्ष्मी दास पर, करहु दया की कोर ॥
॥इति श्री लक्ष्मी चालीसा॥
Comment by Prabhakar Pandey on July 9, 2010 at 3:15pm
सुंदर संग्रह, रवि भाई।।।। सादर आभार।।

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