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कैसे करता है ये निर्धन भी गुजारा देखो - तरही गजल ( लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

2122     1122      1122     22


तम की रातों में कहीं दूर उजाला देखो
डूबती नाव को तिनके का सहारा देखो।१।


दिन जो तपता हो तो रोओ न उसे तुम ऐसे
धूप कोमल सी हो जिसमें वो सवेरा देखो।२।


कहने वालों ने कहा है कि ये दुनिया घर है
हो मयस्सर तो कभी घूम के दुनिया देखो।३।


आप हाकिम हो रहो दूर तरफदारी से
न्याय के हक में न अपना न पराया देखो।४।


सिर्फ कुर्सी की सियासत में रहो मत डूबे
कैसे करता है ये निर्धन भी गुजारा देखो।५।


बनके नेता न सियासत को समझलो सबकुछ
देश  जलने  का  तो  अब न  तमाशा देखो।६।

मौलिक/अप्रकाशित

लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

 

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 9, 2018 at 11:17am

आ. भाई महेंद्र जी, उत्साहवर्धन के लिए आभार । अंतिम शेर के सानी मिसरे को इस प्रकार देखें , टंकण त्रुटि रह गयी थी

देश जलने का तो अब तुम न तमाशा देखो

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 9, 2018 at 11:14am

आ. भाई तेजवीर, उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 9, 2018 at 11:02am

आ. भाई आरिफ जी, उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 9, 2018 at 11:00am

आ. भाई नरेंद्र जी, उपस्थिति और अनुमोदन के लिए आभार।

Comment by Mahendra Kumar on June 9, 2018 at 10:04am

बढ़िया ग़ज़ल हुई है आदरणीय लक्ष्मण धामी जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. आख़िरी शेर के सानी मिसरे की बह्र एक बार देख लीजिएगा. सादर.

Comment by TEJ VEER SINGH on June 8, 2018 at 9:56pm

हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"जी।बेहतरीन गज़ल।

सिर्फ कुर्सी की सियासत में रहो मत डूबे
कैसे करता है ये निर्धन भी गुजारा देखो।५।

Comment by Mohammed Arif on June 8, 2018 at 9:18pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी आदाब,

                                  भीतर की बेचैनी, सत्ता के प्रति कहीं-कहीं आक्रोश और कहीं हौसला बढ़ाती बेहतरीन अश'आरों से सुसज्जित ग़ज़ल । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

Comment by narendrasinh chauhan on June 8, 2018 at 7:18pm

बहोत खूब 

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