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तरही ग़ज़ल : ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया

212 212 212 212

...

दरमियाँ अब तेरे मेरे क्या रह गया,

फासला तो हुआ पर नशा रह गया ।

उठ चुका तू मुहब्बत में इतना मगर

मैं गिरा इक दफ़ा तो गिरा रह गया ।

ज़ह्र मैं पी गया, बात ये, थी नहीं,

दर्द ये, मौत से क्यों ज़ुदा रह गया ।

मौत से, कह दो अब, झुक न पाऊँगा मैं,

सर झुकाने को बस इक खुदा रह गया ।

टूट कर फिर से बिखरुं, ये हिम्मत न थी,

इस जहाँ को बताता, गिला रह गया ।

खत जो तेरा पढ़ा चश्म-ए-तर हो गए,

बा-वफ़ा था मैं अब बे-वफ़ा रह गया ।

ज़िन्दगी में चलीं आँधियाँ इस कदर,

ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया ।

-- --  ---

मौलिक व अप्रकाशित

हर्ष महाजन

Views: 792

Comment

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Comment by Harash Mahajan on March 4, 2018 at 4:45am

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी प्रोत्साहन हेतु शुक्रिया ।

Comment by Harash Mahajan on March 4, 2018 at 4:43am

ग़ज़ल पर उत्साहपूर्ण टिप्पणी के लिये बहुत बहुत शुक्रिया रक्षिता सिंह जी ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 3, 2018 at 11:21pm

अच्छी गजल हुई है हार्दिक बधाई । शेष गुणी जन बतायेंगे..

Comment by रक्षिता सिंह on March 3, 2018 at 7:38pm

आदरणीय हर्ष जी, नमस्कार।

बहुत ही बेहतरीन पंक्तियाँ.....

उठ चुका तू मुहब्बत में इतना मगर

मैं गिरा इक दफ़ा तो गिरा रह गया । 

हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

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