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रिश्ते में नुकसान जोड़ते पाई पाई------इस्लाह के लिए ग़ज़ल

22 22 22 22 22 22
रिश्ते में नुकसान जोड़ते पाई पाई।
आँगन में दीवार खींचते भाई भाई।।

वाह रुपये खूब तुम्हारी भी है माया।
पुत्र बसा परदेश गाँव में बाबू- माई।।

कलयुग कैसी है ये तेरी काली छाया
साथ नहीं देती है खुद की ही परछाई।।

नातेदारी मृग मरीचिका में उलझी है
जानें कितनी लाश गिरेगी रे'त में भाई।।

पंकज बैठा लिये तराजू आओ लोगों
नाप-जोख कर भाव लगाकर करो मिताई।।

मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on July 11, 2017 at 7:07pm
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

तीसरे शैर में क़ाफ़िया दोष है,सही शब्द है "परछाईं" देखियेगा ।

'जाने कितनी लाश गिरेगी रेत में भाई'
इस मिसरे में 'कितनी'शब्द बहुवचन के लिए है और 'लाश'एक वचन ,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं :-
"जाने किसकी लाश गिरेगी रेत में भाई"
Comment by Ravi Shukla on July 11, 2017 at 2:26pm

आदरणीय पंकज जी बेहतरीन मतला  वाह जैसा कि इस बहर में लय महत्‍वपूर्ण होती है दूसरे शेर का उला देखें लय बाधित है

गजल के लिये दिली बधाई पेश है  इस बहर में आखिरी रुक्‍न को 22 की जगह 2 करें तो और भी अच्‍छी लय बनती है

सादर

Comment by Sushil Sarna on July 11, 2017 at 2:18pm

रिश्ते में नुकसान जोड़ते पाई पाई।
आँगन में दीवार खींचते भाई भाई।।

वाह रुपये खूब तुम्हारी भी है माया।
पुत्र बसा परदेश गाँव में बाबू- माई।।

वाह आदरणीय दिल को छूती इस भावपूर्ण ग़ज़ल के हार्दिक बधाई पंकज जी।

Comment by Mohammed Arif on July 11, 2017 at 2:11pm
आदरणीय पंकज कुमार जी आदाब,ग़ज़ल कहने का बेहतरीन प्रयास ।बधाई स्वीकार करें । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।

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