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ग़ज़ल.. जला दो दीप उल्फत के कभी काशी मदीने में

1222 1222 1222 1222
उठा लो हाथ में खंज़र लगा दो आग सीने में
धरा है क्या नजाकत में नफासत में करीने में

बड़े खूंरेज कातिल हो जलाया खूब इन्सां को
जला दो दीप उल्फत के कभी काशी मदीने में

उठी लहरें हजारों नागिनें फुफकारती जैसे
न कोई बच सका जिन्दा समंदर में सफीने में

न सर पे आशियाँ जिनके न खाने को निवाले हैं
उन्हें क्या फर्क पड़ता है यूँ मरने और जीने में

हुये मशहूर किस्से जब अदाए कातिलाना के
सहेजूँ किस तरह तुमको अँगूठी के नगीने में

घटायें उनकी यादों की ले आईं आँख में पानी
बचा 'ब्रज' कौन फ़ुरक़त से यहाँ सावन महीने में
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by Gurpreet Singh jammu on May 19, 2017 at 5:29am
बहुत अच्छी ग़ज़ल प्रस्तुत कि आपने आदरणीय ब्रजेश जी.मतला बहुत पसंद आया
Comment by Samar kabeer on May 18, 2017 at 9:54pm
जनाब बृजेश कुमार'ब्रज'साहिब आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

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