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नारी ( सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' )

नारी तुम! सुकुमार कुमुदुनी
सौम्य स्नेह औ प्रेम प्रदाता ||
धरती पर हो शक्ति स्वरूपा
तुम रण चंडी भाग्य विधाता ||

संस्कारों की शाला तुम हो
तुम लक्ष्मी सावित्री सीता |
निर्वाहिनी सत्कर्म की तुम
तुम्ही वेद कुरान औ गीता ||

सह कर असह्य प्रसव वेदना
तुम लाल धरा पर लाती हो |
तुम हो धात्री अखिल जगत की
तुम्ही सृष्टि सृजन बढाती हो ||

हे रूपवती हे कमनीया
ईश्वर की तुम अद्भुत रचना ||
तलवार धरो जब कर में तो
मुश्किल है अरिदल का बचना ||

करुणा का हो सागर अथाह
तुम सकल प्रेम की परिभाषा |
तुम जीवन सँगिनी हो नर की
तुम शिशु ममत्व की अभिलाषा ||

तुम हो माता भगिनी भार्या
ईश्वर का हो वरदान तुम्ही |
घर आगन को रोशन करती
हो शुचिता की पहचान तुम्ही ||

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on March 8, 2017 at 2:34pm
आ0 सुरेन्द्र नाथ जी नारी के विविध रूपों का वर्णन करती सुंदर रचना की बधाई।
तुम हो माता भगिनी भार्या
ईश्वर का हो वरदान तुम्ही |
बहुत अच्छी।
Comment by Mohammed Arif on March 8, 2017 at 10:17am
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ जी आदाब , नारी रूप के विविध पक्षों को उद्घरित करती रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई ।

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