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शांत है सोया हुआ जल --(गीत)-- मिथिलेश वामनकर

उफ़! करो कोई न हलचल,

शांत सोया है यहाँ जल ।

 

नींद गहरी, स्वप्न बिखरे आ रहे जिसमें निरंतर।

लुप्त सी है चेतना,  दोनों दृगों पर है पलस्तर।

वेदना, संत्रास क्या हैं? कब रही परिचित प्रजा यह?

क्या विधानों में, न चिंता, बस समझते हैं ध्वजा यह।

कौन, क्या, कैसे करे?  जब,

हो स्वयं निरुपाय-कौशल।

 

पीर सहना आदतन, आनंद लेते हैं उसी में।

विष भरा जिस पात्र में मकरंद लेते हैं उसी में।

सूर्य के उगने का रूपक, क्या तनिक भी ज्ञात होगा?

क्रांति की जलती मशालों से इन्हें आघात होगा ।

बस बनाते रह गए,

सब बात या बातों में अटकल।

 

क्या सही है, क्या गलत है? इस विषय पर मौन जनता।

शोक हैं अनिवार्यता, उस बात पर त्यौहार मनता।

कौन यह स्वीकार करता- यह अचेतन की दशा है।

अंध श्रद्धा से भरा मन,  एक व्यसनी का नशा है।

कब भला पहचान पाए,

कौन दूषित, कौन निर्मल?

 

लोक उन्मुख कौन कितने, लोक हन्ता कौन कितने?

क्या प्रकृति समझो तनिक, वाचाल कितने मौन कितने?

सत्य की अर्थी उठाकर कौन आया है सदन में?

भेद क्या समझो तथागत और निर्मम दश-वदन में।

चल रहा क्रंदन युगों से,

जाग रे! इक बार पागल।

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by Tasdiq Ahmed Khan on January 9, 2017 at 8:36pm

मुहतरम जनाब मिथिलेश  साहिब , बहुत ही सुन्दर गीत हुआ है , मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 9, 2017 at 6:17pm

आदरणीय सुरेन्द्र जी, आपकी मुक्तकंठ प्रशंसा आश्वस्तकारी है. इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर

Comment by नाथ सोनांचली on January 9, 2017 at 3:04pm
आद0 मिथिलेश भाई जी सादर अभिवादन, सचमुच आप की सृजन उच्च स्तरीय है, मैं तो साहित्य में एकदम नया हूँ, तथा आप सभी से सीखने में लगा हूँ, पर अगर कोई रचना पढ़कर अचानक मुंह से वाह निकल जाए, वैसी सृजन आपके रचनाओं में मिलता है। आपको बहुत बहुत बधाई और आगे के लिए कोटिश शुभकामनाये, सादर

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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 9, 2017 at 2:08pm

आदरणीय समर कबीर जी, आपकी प्रशंसा से आश्वस्त हुआ हूँ. आप जैसे गुनीजन से दाद मिलना, मेरे लिए बड़ी बात है.  इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद.


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 9, 2017 at 2:02pm

आदरणीय आशुतोष जी, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. जहाँ तक गीत के शिल्प की बात है तो मैंने इस गीत में बह्र-ए-रमल को आधार बनाकर प्रयास किया है जो हिंदी के गीतिका छंद के निकट है. सादर. 

Comment by Samar kabeer on January 9, 2017 at 1:58pm
जनाब मिथिलेश वामनकर जी आदाब,आपकी हर रचना कमाल की होती है,इसके तो हम पहले ही से क़ाइल हैं,ये गीत भी बहुत सुंदर रचा है आपने,इस शानदार प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 9, 2017 at 12:38pm
आदरणीय मिथिलेश जी बहुत ही सूंदर गीत है लोकतान्त्रिक व्यबस्था में वर्तमान का सन्दर्भ बखूबी चिंतित है लोकतंत्र की हर कड़ी कोआइना दिखाती और अपने अधिकारों के प्रति जागृत करते इस गीत के लिए बढ़ाई पिछले गीतों में आपने जैसे दोहागीत या अन्य से गीत को ओरिभाषित किया था यह गीत किस तरह का है जान्ने कीजिग्यासा के कारण पूंछ रहा हूँ ताकि गीतों के सम्बन्ध में मेरी जानकारी औरपुख्ता हो सके आपके मंच पर पर प्रेषित होने वाले गीतों में इसी निवेदन के साथके साथ सादर

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