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ग़ज़ल.... अजीब मंजर है बेखुदी का

121 22 121 22 121 22 121 22

न वक्त का कुछ पता ठिकाना न रात मेरी गुज़र रही है ।
अजीब मंजर है बेखुदी का , अजीब मेरी सहर रही है ।।

ग़ज़ल के मिसरों में गुनगुना के , जो दर्द लब से बयां हुआ था ।
हवा चली जो खिलाफ मेरे , जुबाँ वो खुद से मुकर रही है ।।

है जख़्म अबतक हरा हरा ये , तेरी नज़र का सलाम क्या लूँ ।
तेरी अदा हो तुझे मुबारक , नज़र से मेरे उतर रही है ।।

मिरे सुकूँ को तबाह करके , गुरूर इतना तुझे हुआ क्यूँ ।
तुझे पता है तेरी हिमाकत , सवाल बनकर अखर रही है ।।

न वस्ल को तुम भुला सकी हो, न हिज्र को मैं भुला ही पाया ।
यहाँ रकीबों की वादियों में , तेरी ही खुशबू बिखर रही है ।।

हमारे दिल में हमी से पर्दा , गुनाह कुछ तो छुपा गई हो ।
है दिल का कोई नया मसीहा , तू जिसके दम पे निखर रही है ।।

किसी तबस्सुम की दास्ताँ पे , फ़ना हुआ है गुमान जिसका ।
है कत्ल खाने में जश्न इसका, कज़ा की महफ़िल गुजर रही है ।।

हुजूर चिलमन से देखते हैं , गजब का मौसम है कातिलाना ।
ये इश्क भी क्या अजब का फन है नज़र नज़र पे ठहर रही है ।।

तमाम रातो के सिलसिलों में , खतों से अक्सर पयाम आया ।
जो चोट मुझको मिली थी तुझसे वो फ़िक्र बनकर उभर रही है ।।

----- नवीन मणि त्रिपाठी

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on December 7, 2016 at 5:06pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
पूरी ग़ज़ल में ऐब-तनाफ़ुर है, देखियेगा ।
पांचवें शैर में शुतरगुर्बा का दोष है,देखियेगा ।

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