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मोह(लघुकथा)राहिला

वह सात दिन लगातार चलते हुए आखिर अपने घर तक पहुँच ही गयी।लेकिन अपने घास पूस के टपरे में कदम रखने से पहले ही उसकी हिम्मत जबाब दे गयी और वह धम्म में जमीन पर ऐसी गिरी की लाख कोशिशों के बाद भी उठ ना सकी।आज ही के दिन उसके घर वालो ने उसे गैरों के हवाले किया था।पूरे रस्ते वह कितना रोई ।उस जैसी कई थी उस गाड़ी में ,श्यामा भी।
"बस कर गौरा!मत रो.., जब अपनों ने ही अपना नहीं समझा तो किस की जान को रो रही हो।"
"तू बता श्यामा!क्या ये अन्याय नहीं है?जिस उम्र में हमें उन की,अपने घर की, सबसे ज्यादा जरूरत है ऐसे समय में हमारे घरवालों ने हमें बेघर कर दिया।"
"अब इन बातों का कोई मतलब नहीं।बस कर,मत सोच इतना ।इससे दुःख और बढ़ेगा ।हम माँ हैं उनकी कहीं गलती से आह ना निकाल जाए नहीं तो.....।"
"नहीं ...,मैं अपना दूध कभी माफ़ ना करूंगी।"इससे पहले श्यामा कुछ और समझाती अचानक गाड़ी का ब्रेक लगा और उनका संतुलन बिगड़ते ,बिगड़ते बचा ।दरअसल कुछ लोगों ने उनकी गाड़ी को घेर कर रोक लिया था। फिर उन लोगों ने उसके ड्राइवर को, उसके दो साथियों को ,गाड़ी से बाहर निकाला ,और बेतहाशा मारा । और गौरा ,श्यामा सहित बाक़ी सब को उनके चंगुल से आज़ाद करा लिया।
"देखा श्यामा भगवान के घर देर है अंधेर नहीँ "कहते साथ, गौरा की बूंढ़ी आँखों में घर वापसी की चमक कौंध गयी।
"तो तू घर वापस जायेगी? लेकिन कैसे? हम बहुत दूर निकल आये री! फिर घर तो घरवालों से होता है ।अब वहां कौन है तेरा सगा?"लेकिन वह ना मानी।आज उसकी पथरायी आँखों में सब चलचित्र सा तैर गया।
तभी किसी ने आवाज दी ।
"अरे बुधुआ !देख जरा ,तेरी गऊ मैया तो वापस लौट आई रे..।कैसी मरणसन्न हालत में द्वारे पड़ी है।"गौरा ,जो अब अपने घर पर थी उसने सुकून की आखरी सांस ली ,लेकिन छोड़ना भूल गयी।
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by pratibha pande on September 3, 2016 at 12:54pm

  श्यामा और गौरा  का दर्द जिस सहजता और संवेदना के साथ आपने इस रचना में कहा है,  वह इस मुद्दे पर कही जाती रही ढेरों  भारी भरकम  बातों से कहीं  ज़्यादा  व्यवहारिक और अपना  प्रभाव  छोड़ने  में सक्षम है     बधाई  प्रिय राहीला जी     

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