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चलो बंजारा बनें-ग़ज़ल

2122 2122 1222 212

कैद हो रहने से बेहतर, चलो बंजारा बनें।
घुट के यूँ जीने से बेहतर, चलो आवारा बनें।।

देख पैसे की हवस हमको है ले आई कहाँ।
चल के जंगल में रहें आदमी दोबारा बनें।।

अपनी दुनिया में ही मशरूफ हैं लायक तो सभी।
चल मुहल्ले की उदासी हरें नाकारा बनें।।

पूछता कोई नहीं प्यासे हैं कुछ बूढ़े शज़र।
स्नेह बरसाए जो उन पर वही फव्वारा बनें।।

डोर रिश्तों की नहीं दिखती है अँधेरा घना।
हम ही दीपक से जलें रात में उजियारा बनें।

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 6, 2016 at 11:13pm
आदरणीय गिरिराज सर,सादर प्रणाम।

1. अरुजानुरूप बह्र है या नहीं, पर गुनगुनाने में बहुत मासूम लग रही थी सो लिख दिया।
2. अँधेरा में टाइपिंग में गल्ती हुई है-अन्धेरा पढ़ा जाए।

सादर आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 6, 2016 at 11:10pm
आदरणीय रवि सर सादर आभार

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Comment by गिरिराज भंडारी on July 6, 2016 at 8:42pm

आदरणीय पंकज भाई , गज़ल अच्छी हुई है , भाव अच्छे हैं हार्दिक बधाइयाँ ।

दो बात कहनी है -- 1 - अरूज के अनुसार ये बहर सही है नही मै नही जानता , शंका है

अगर ये बहर सही भी है तो -

2-  अँधेरा को आप 222 लिये हैं  , इसे 122 मे बान्धना चाहिये  ( अंतिम शे र का उला देखें )

Comment by Ravi Shukla on July 6, 2016 at 12:17pm

आदरणीय पंकज जी इस गजल केे भाव अच्‍छे लगेे ब‍धाई स्‍वीकार करें । 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 6, 2016 at 11:36am
आदरणीय महेंद्र जी बहुत बहुत आभार
Comment by Mahendra Kumar on July 6, 2016 at 11:26am
आदरणीय पंकज जी, बहुत ही अच्छी ग़ज़ल लिखी है आपने। हार्दिक बधाई स्वीकार करें, सादर!
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 5, 2016 at 10:01pm
आदरणीय सुशील सरन सर बहुत बहुत आभार।
Comment by Sushil Sarna on July 5, 2016 at 8:08pm

कैद हो रहने से बेहतर, चलो बंजारा बनें।
घुट के यूँ जीने से बेहतर, चलो आवारा बनें।।

देख पैसे की हवस हमको है ले आई कहाँ।
चल के जंगल में रहें आदमी दोबारा बनें।।

वाह अादरणीय ग़ज़ब के अहसास पिरोये हैं अपने अदरणीय इस दिलकश ग़ज़ल की प्रस्तुति मेंं। हार्दिक बधाई सर।

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