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सूखे होठों की चलो प्यास बुझाई जाए (एक ग़ज़ल)......//डॉ.प्राची

2122 1122 1122 22

सारे धर्मों की सही बात उठाई जाए,
उसकी इक बूँद हर इन्साँ को पिलाई जाए।

है समंदर ही समंदर मगर इन्साँ प्यासा
सूखे होठों की चलो कहाँ प्यास बुझाई जाए।

आज तक माफ़ किया जिनको समझ कर नादाँ
अब जरूरत है उन्हें आँख दिखाई जाए।

जेठ की गर्म हवाओं में भी बरसे सावन
मेहंदी प्यार की प्यार की मेहंदी जो हाथों में रचाई जाए।

खौफ की ज़द में घिरे मुल्क सभी हैं बेबस
शक्ति ऐसी किसी सागर में डुबाई जाए।इनकी तकलीफ़ भला कैसे मिटाई जाए।

आग में जिसकी झुलसते झुलसती हैं ये कूचे-गलियाँ
क्यों न हर बात वही जड़ से मिटाई जाए।

बह न जाए कहीं आँखों से शरम का पानी
दिल के बंजर आँगन में चलो मेढ़ बनाई जाए।

आज भी घास की रोटी ही निवाला जिनका
उनकी रूठी हुई किस्मत भी मनाई जाए।

मौलिक और अप्रकाशित

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 25, 2016 at 10:05am

आ० गिरिराज भंडारी जी 

आपके बहुमूल्य उत्साहवर्धन, सराहना, और इस्सलाह के लिए तहे दिल से आभारी हूँ. 

अभी उर्दू के शब्दों के प्रयोग के साथ ज्यादा सहज नहीं हूँ और मेरा शब्द भण्डार भी उसके अनुरूप बहुत छोटा सा है, इसलिए आपके दिए सानी मिसरे को समझने का प्रयास कर रही हूँ.

ग़ज़ल पर आपके मार्गदर्शन की हमेशा ही आवश्यकता रहेगी. आप ज़रूर मुझे मेरी विधाजन्य हर गलती पर सुधारें,आपसे यही अपेक्षा है, अनुरोध है.

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 24, 2016 at 9:03pm
यकीनन जिस तरह दो पंक्तियों/मिसरों में कहे कथ्य को आपस में सामंजस्य बैठते हुए जोड़ा है, यही महीन पॉइंट इन विकल्पों में कथ्य को सार्थकता से पूरा करता है।
सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 24, 2016 at 6:23pm

सबसे पहले तो क्षमा माँग रहा हूँ कि मैं इस तथ्यपरक बातचीत में स्वयं अपनी मौज़ूदग़ी नहीं बना पा रहा हूँ. लेकिन इतना ज़रूर है, कि आदरणीय समर साहब के तीनों सुझाव कमाल के हैं. और, यही कुछ कहने केलिए मैं आया भी हूँ. बहुत खूब, आदरणीय !

मैंने जो कहा है, आदरणीया प्राचीजी, कि  "हर तथ्य शेर का कथ्य नहीं बन सकता" उसके निहितार्थ को समझियेगा. आपके ही ’तथ्य’ को आदरणीय समर साहब ने कितनी खूबसूरतीसे क्या मोड़ दिया कि कथ्य माशाअल्लाह निखर आया ! लेकिन यहाँ न यूरेनियम पॉवर है, न ऑटोमिक प्लाण्ट ! कथ्य है तो मसाइल का है, आपसी अविश्वास का है जिसे या तो समन्दर में डुबाने की बात की गयी है, या, उसे मिटाने की बात की गयी है ! मेरा इशारा इसी ओर था.

आदरणीय समर साहाब्, आपकी सफल कोशिशों ने मंच पर सदस्यों-पाठकों को टिप्पणियाँ करने के क्रम में एक  नयी राह दिखायी है !

आपका सादर आभार आदरणीय..

Comment by Samar kabeer on February 24, 2016 at 5:53pm
डॉ प्राची जी इस विकल्प पर जनाब सौरभ पांडे जी क्या कहते हैं,उसके बाद आपकी चिंता दूर करने का प्रयास भी ज़रूर किया जायेगा,आप ग़ज़ल का प्रयास जरी रखिये,ओबीओ ज़िंदाबाद !

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 24, 2016 at 5:04pm

आदरणीय समर कबीर जी,

तींनो ही विकल्प बहुत बढ़िया हैं, कोई भी एक लिया जा सकता है...

इस ग़ज़ल पर इतना परिश्रम करने और इतना सारा समय देने के लिए तहे दिल से आपका शुक्रिया.

मेरा चिंतन अब इस बात पर भी है की "हर तथ्य शेर का कथ्य नहीं बन सकता" तो आ० सौरभ जी के इस कहे को अभी और उदाहरणों और रिसर्च द्वरा समझने की कोशिश कर रही हूँ.

आप इसके आलोक में भी कुछ विचार ज़रूर साँझा करें .

सादर 

Comment by Samar kabeer on February 23, 2016 at 2:58pm
खौफ की ज़द में घिरे मुल्क सभी हैं बेबस
शक्ति ऐसी किसी सागर में डुबाई जाए

इस शैर पर बहुत विचार करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि इसे इस तरह दुरुस्त किया जा सकता है :-

"जिसके कारण हैं सभी ख़ौफ़ के साए में यहाँ
ताक़त ऐसी तो समंदर में डुबाई जाए"

या

"ख़ौफ़ की ज़द में घिरे मुल्क सभी हैं बेबस
इनकी तकलीफ़ भला कैसे मिटाई जाए"

या

"जिसके कारण है सभी ख़ौफ़ के साए में यहाँ
ऐसी हर चीज़ समंदर में डुबाई जाए"

इन तीनो में से जो भी पसंद आए उसे देख लें अन्यथा कुछ और प्रयास करेंगे ।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 23, 2016 at 2:13pm

कोशिशों को अनुमोदित करने केलिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय धर्मेन्द्रजी. 

आदरणीय गिरिराज भाई, आपका सुझाव सही हुआ है. बहुत अच्छे..

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 23, 2016 at 1:06pm

बहुत अच्छा प्रयास है आदरणीया प्राची जी, सौरभ जी ने जो विस्तृत समीक्षा की है उसके बाद कुछ कहने को बचता नहीं। दाद कुबूल करें।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 23, 2016 at 11:35am

इस सुन्दर ग़ज़ल  के हार्दिक बधाई l

Comment by kanta roy on February 23, 2016 at 10:10am
वाह ! क्या खूब घास की रोटी का जिक्र हुआ है । बेहद शानदार गजल हुई है यह आपकी आदरणीया प्राची जी । बधाई स्वीकार करें ।

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