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2212 2212 2212
कटते सिपाही ठग रही अब भीत है
बस मर्सिया पढ़ना यहाँ की रीत है।1

शर्मोहया ढूँढ़ें कहाँ,तू कह रहा-
कटते सिपाही खोखले! तू रीत है।2

बगुला बना तू रे चकाचक हो गया
गाता रहा तबसे पुराना गीत है।3

तू मछलियाँ लपका किया बस बेधड़क
जीता किसीने कह रहा निज जीत है।4

बँट ता रहा घर -बार है तेरी दुआ
रे दुखहरण! तुझसे समां भयभीत है।5

हर बार काँटा है चुभा परसे दही
रे छा रही संकट-घटा विस्फीत है।6

है फेंकता खंजर पड़ोसी दूर से
तू घोंपता गाता ढिठाई गीत है।7

अब जा रहा मन का अँधेरा रे सुनो
तेरी उमर समझो गयी अब बीत है।8

कितना छलेगा अब बता झूठे सनम!
अब तो ढहा की रे खड़ी जो भीत है।9

मन की किवाड़ें खोलना माना कठिन
हम तो करेंगे ही जतन यह नीत है।10

रख बंद अपनी आँख तू बेशक मुआ
अब है पड़ीअपनी नजर विपरीत है।11
मौलिक व अप्रकाशित@

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Comment

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Comment by Manan Kumar singh on January 12, 2016 at 4:54pm
प्रेरणा देने के लिए आभार आदरणीय गिरिराज भाई।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 12, 2016 at 4:14pm

आदरनीय मनन भाई , अच्छी गज़ल कही है , आपको हार्दिक बधाइयाँ गज़ल के लिये ।

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