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ग़ज़ल-नूर --अपने अहसास दर-ब-दर रखते,

ग़ज़ल 
२१२२/१२१२/२२ (११२)
.
अपने अहसास दर-ब-दर रखते,
उन से उम्मीद हम अगर रखते.
.
कौन आता यहाँ, जो पूछता ‘वो’,
चाँद तारों में हम भी घर रखते.
.
नींद आती जो रात भर के लिए,
उन को ख़्वाबों में रात भर रखते.
.   
जंग से क़ब्ल हार जाते हम,  
दिल में ज़ालिम का हम जो डर रखते
.
वो ख़ुदा ही मिला नहीं हम को,
जिस के क़दमों पे अपना सर रखते.
.
मुख़बिरी करते थे ज़माने की,
काश ख़ुद की भी कुछ ख़बर रखते.
.
छोड़ देते शराब कब की हम
तुम निगाहों में वो असर रखते!
.
निलेश "नूर" 
मौलिक / अप्रकाशित 

Views: 740

Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 22, 2015 at 12:12am

तुम आ गए हो, नूर आ गया है 

नहीं तो ........................

शानदार ग़ज़ल 

दाद ही दाद 

Comment by Samar kabeer on December 21, 2015 at 11:06pm
जनाब निलेश "नूर" जी,आदाब,काफ़ी अरसे के बाद ओबीओ के मंच पर आपको देखकर मसर्रत हुई ,बहुत उम्दा ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को,हर शैर दाद के क़ाबिल है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं,और ओबीओ पर अपनी हाज़री बनाए रखें ।
Comment by Neeraj Neer on December 21, 2015 at 10:34pm

वाह कमाल के अशार कहें हैं ..... 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 21, 2015 at 8:11pm
//.
मुख़बिरी करते थे ज़माने की,
काश ख़ुद की भी कुछ ख़बर रखते.
.//......बहुत ख़ूब जनाब निलेश 'नूर' साहब।

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