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हो शुरू जंगे- मुस्तहब कोई- शिज्जु शकूर

2122 1212 112/22
हो शुरू जंगे-मुस्तहब कोई
लाये इक इन्किलाब अब कोई

यूँ अदब के बदल गये मा’ने
होता है रोज़ बे-अदब कोई

आज ग़ारतगरों के कहने पर
शह्र फूँके है बे-सबब कोई

लफ़्ज़ तेरे, तेरा तवाफ़ करें
सीख-ले बोलने का ढब कोई

आग फिरका-परस्ती की ऐ दोस्त
और भड़के बुझाये जब कोई

जब उलझ जाये बात बातों में
इक सिरा ढूँढ लेना तब कोई

सूरते-हाल पूछिये न ‘शकूर’
रोज़ नाज़िल हो इक ग़ज़ब कोई

-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by नादिर ख़ान on November 25, 2015 at 7:04pm

लफ़्ज़ तेरे, तेरा तवाफ़ करें
सीख-ले बोलने का ढब कोई

आग फिरका-परस्ती की ऐ दोस्त
और भड़के बुझाये जब कोई

जब उलझ जाये बात बातों में
इक सिरा ढूँढ लेना तब कोई

सूरते-हाल पूछिये न ‘शकूर’
रोज़ नाज़िल हो इक ग़ज़ब कोई

वाह क्या खूब कहा आदरणीय शिज्जु साहब

छोटी बहर की उत्तम गज़ल बहुत मुबारकबाद आपको ...

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on November 23, 2015 at 6:36pm
वाह.....बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुयी है आ.शिज्जू सर।हार्दिक बधाई।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 23, 2015 at 3:20pm

आदरणीय शिज्जू भाई जी शानदार ग़ज़ल हुई है. अशआर एक से बढ़कर एक है. शेर दर शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं.

कृपया ध्यान दे...

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