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संसार हो गया है, अब अंगहीन जैसे---(ग़ज़ल)--- मिथिलेश वामनकर

221—2122—221--2122

 

संसार हो गया है, अब अंगहीन जैसे

सब लोग सोचते है, केवल मशीन जैसे

 

ये जात ही जुदा है, बस नाम ‘लोकसेवक’

मिलते है सबसे अक्सर, गद्दी-नशीन जैसे

 

जब से दिखी वो छत पर, सूरत हसीन यारो

ये चश्में हो गए हैं, कुछ दूरबीन जैसे

 

ग़मगीन जिंदगी को, आराम मिल गया है

फन के नशे में डूबे, फिर आफरीन जैसे

 

हिम्मत से जब वरक पर, सच नौजवां लिखे तो 

तारीख भी बदल दे, इक आलपीन जैसे

 

ऐसे निजाम से भी अब क्या सवाल करना

देते जवाब वो भी ढुलमुल-यकीन जैसे

 

इस वक़्त ने मरासिम, कितने बदल दिए है

अपनी रही है कुरबत, पर्दानशीन जैसे

 

बाज़ार हावी हम पर, जब से हुआ है यारो  

आँसू भी आ रहे हैं, अब ग्लीसरीन जैसे

 

खुशियाँ मिले तभी तक, क़दमों में आसमां है

हमने ग़मों को पाया, सिर पे जमीन जैसे

 

वो आँसुओं से मेरे, है आचमन को राजी

गिनते सदा रहे जो, केवल मलीन जैसे

 

खुशबू के जिस्म पर जो लिखता है नाम मेरा

उसकी भी शख्सियत में, है  यासमीन जैसे

 

हालाते-मुल्क देखा तो ये ख़याल आया

गांधी जी हार बैठे, बन्दर वो तीन जैसे

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 3, 2015 at 10:11pm

आदरणीय गिरिराज सर, इस प्रयास पर आपके अनुमोदन से आश्वस्त हुआ हूँ ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 3, 2015 at 6:23pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , कुछ नये प्रयोगों के साथ एक अच्छी ग़ज़ल कही है , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 3, 2015 at 12:39pm

आदरणीया सविता जी प्रयास किया है कि बोलचाल की भाषा में ही ग़ज़ल कहूं. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 3, 2015 at 12:38pm

आदरणीय आशुतोष जी आपकी दाद पाकर दिल खुश हो गया. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 3, 2015 at 12:37pm

आदरणीय श्याम जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 3, 2015 at 12:37pm

आदरणीय आमोद जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 

Comment by savitamishra on November 2, 2015 at 11:59pm

खूबसूरत गजल....बहुत बढ़िया....अर्थ कुछ एकं समझ आया

Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 2, 2015 at 5:20pm

जब से दिखी वो छत पर, सूरत हसीन यारो

ये चश्में हो गए हैं, कुछ दूरबीन जैसे..वाह क्या खूब कहा है 

हिम्मत से जब वरक पर, सच नौजवां लिखे तो 

तारीख भी बदल दे, इक आलपीन जैसे..पूरी तरह सहमत हूँ  आदरणीय मिथिलेश जी ..इस शानदार रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by Shyam Narain Verma on November 2, 2015 at 4:49pm
.बहुत खूबसूरत ग़ज़ल बहुत २ बधाई
Comment by amod shrivastav (bindouri) on November 2, 2015 at 3:05pm
हर अशआर बहुत सुन्दर है बधाई नमन

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