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मत कहो! कि सत्य फिर विचार लूँ ज़रा.................(डॉ० प्राची सिंह)

बादलों की ओट से उधार लूँ ज़रा
चाँद आज तुझको मैं निहार लूँ ज़रा..

कँपकँपा रहे अधर नयन मुँदे मुँदे
साँस की छुअन से ही पुकार लूँ ज़रा..

शब्द शून्य सी फिज़ा हुई है पुरअसर 
सिहरनों से रूह को सँवार लूँ ज़रा..

चाँद भी पिघल के कह रहा मचल मचल 
चाँदनी में प्यार का निखार लूँ ज़रा..

अब महक उठे बहक उठे प्रणय के पल
इन पलों में ज़िन्दगी गुज़ार लूँ ज़रा..

वक्त रुक! न धड़कनों सा तेज़ तू मचल
ख्वाब एक यकीन में उतार लूँ ज़रा..

झूठ है, तो क्या हुआ? है ज़िन्दगी मगर
मत कहो! कि सत्य फिर विचार लूँ ज़रा.

(मौलिक और अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 27, 2015 at 8:35pm

आदरणीय डॉ० विजय शंकर जी 

अशआर अपने कथ्य से आपको प्रभावित कर सके जानना उत्साहवर्धक है... हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया 

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 27, 2015 at 8:34pm

आदरणीय मिथिलेश जी 

इसी वजन पर ग़ज़ल लिखने का प्रयास किया है :))


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 27, 2015 at 3:44pm
212 1212 1212 12 ?
बह्र या वज़्न?
Comment by Dr. Vijai Shanker on September 27, 2015 at 9:15am
झूठ है, तो क्या हुआ? है ज़िन्दगी मगर
मत कहो! कि सत्य फिर विचार लूँ ज़रा।
सच ही कहा जाता है कि सत्य का विपरीत भी सत्य ही होता है ,
बहुत गहरे और दार्शनिक तत्व हैं आपकी इस खूबसूरत ग़ज़ल में।
बहुत बहुत बधाई आदरणीय सुश्री डॉ0 प्राची सिंह जी , सादर।

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