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अ से अंधेरा~~~~~मनोज अहसास

बड़े दिनों के बाद में आखिर
उनका बुलावा आ ही गया
सरकारी शिक्षक होने का
मन में कितना हर्ष हुआ
घर से दूर जाना था मुझको
लेकिन सोचा कोई बात नहीं
यही सत्य है इस जग का
कुछ खोकर ही कुछ पाना है
रात से बेहतर होता सवेरा
भले ही बादल वाला हो
पहुँच गया जब शिक्षा मंदिर
देखकर मन बस टूट गया
ऐसा लगा
उन्नत समाज साफ़ सुथरा जीवन
कितना पीछे छूट गया
घोर कालिमा खुरदरी भूमि
श्यामपट्ट से चेहरों तक
मैले कपड़ो में नन्हा भारत
आँखों में दर्द सजाये हुए
गंदे फर्श पर बैठा था
एक शिक्षिका निपट अकेली
बड़ी असहाय सुने सुनाय
बड़े जतन से पढ़ा रही थी
बच्चे लिखते थे तख्ती पर
मैंने देखा
चाक नहीं है
न खड़िया है
निर्धनता ने मिटटी घोल कर
तख्ती पर लिखा जब अ
मेरे मन में गूंज गया है
अ से अन्धेरा होता है
कौन है वो जिसने इनके हक की रौशनी छीन ली है
उसको ढूँढना मुश्किल है
वो थोडा थोडा हम सबमे है
हम थोडा थोडा हिस्सा दे दें
अपने जीवन से रौशनी का
इनके जीवन में रौशनी हो
मै डरा हुआ
सहमा भी हूँ
लेकिन ये मन में सोचता हूँ
सच्ची पीड़ा इनकी लिखी
इनकी मुस्कान भी लिखनी है
एक दिन कविता लिखनी है
जिसमे इनकी मुस्काने हो
जिसमे इनकी खुशहाली हो
बेहद साफ़ और खूब उजली
मुझको अपनी कविता के लिए
कुछ तो करना ही होगा
कुछ आप भी कहे तो बेहतर है


मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 22, 2015 at 3:43pm

इस प्रस्तुति पर बधाई.

Comment by Ravi Shukla on September 22, 2015 at 2:32pm

अादरणीय मनोज जी इस विधा पर पहली बार हम आपको देख रहे हे ये हमारी भी विधा नहीं है इस‍िलिये इसके कथ्‍य और शिल्‍प पर न जाते हुए आपके प्रयास में छिपी सकारात्‍मक सोच के लिये साधुवाद प्रेषित है । 

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