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जहाँ को अमिय से भिगोने चला हूँ

मयक़श हूँ मैं आज, जीने चला हूँ।
ग़म भर के अपने, सीने चला हूँ।
मैं अंगूरी मदिरा का, आशिक नहीं हूँ।
गरल इस ज़माने के, पीने चला हूँ।।

मन वेदना से, पिघलने लगा है।
नैनों से दरिया, निकलनें लगा है।
कहीं पर भी दिल को, राहत नहीं है।
किसी नाज़नीं की, ये चाहत नहीं है।

जमानें को देने, नगीने चला हूँ।
गरल इस जमानें के, पीने चला हूँ।।

कहीं भूख से, छटपटाता कोई तन।
कभी टीन-छत से, टपकता जो सावन।
किसी आँख में जब, झलकती विवशता।
कोई बाप बेटी, की खातिर सिसकता।

तब होकर पसीने-पसीने, चला हूँ।
गरल इस जमानें के, पीने चला हूँ।।

चमन में कली जब, कोई मसली जाती।
किसी की हँसी, काम से कुचली जाती।
जब सोच का दायरा, सँकरा होता।
जब कोख पर, कंस का पहरा होता।

मैं कश्ती बचाने, मरीने चला हूँ।
गरल इस जमानें के, पीने चला हूँ।।

सुनिए हकीक़त, सुनाने हूँ आया।
जगिये मैं सबको, जगाने हूँ आया।
मैं आत्म-सागर, के मंथन को निकला।
विधाता की रचना, के वंदन को निकला।

जहां को अमिय से, भिगोने चला हूँ।
गरल इस ज़माने के, पीने चला हूँ।।

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Comment

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 15, 2015 at 10:14am
आदरणीय गिरिराज सर और श्री सुनील जी आप दोनोंलोगों को सादर अभिवादन

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 15, 2015 at 10:10am

आदरणीय , बहुत भाव पूर्ण अच्छी रचना हुई है , दिली बधाइयाँ आपको ।

Comment by shree suneel on September 15, 2015 at 9:18am
अच्छी प्रस्तुति.. सुन्दर भाव व्यक्त हुए हैं इस रचना में. बधाई आपको आदरणीय पंकज जी.
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 13, 2015 at 9:06pm
आदरणीय जयनीत जी सादर आभार
Comment by जयनित कुमार मेहता on September 13, 2015 at 9:00pm

आदरणीय पंकज जी, सुन्दर रचना हेतु बधाई स्वीकार करें.. :-)

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