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प्यार की आंच से ये फिर से पिघलते क्यूँ हैं (तरही ग़ज़ल 'राज ')

पुरख़तर इश्क की राहें हैं तो चलते क्यूँ हैं

चोट खाकर ही मुहब्बत में सँभलते क्यूँ हैं

 

प्यारा के दीप इन आँखों में यूँ जलते क्यूँ हैं

चाँदनी रात में अरमान मचलते क्यूँ हैं

 

रात में ख़्वाब इन आँखों पे हुकूमत करते

सुब्ह होते ही ये हालत बदलते क्यूँ हैं

 

बेवफाई से हुए  इश्क में जो दिल पत्थर

प्यार की आंच से ये फिर से पिघलते क्यूँ हैं

 

दूर से खूब लुभाते हैं ये तपते सहरा

तिश्नगी में ये मनाज़िर हमे छलते क्यूँ हैं

 

मसअले आम न चाहे ये बनाना आँखें

बेरहम  अश्क ये रुख्सार से ढलते क्यूँ हैं

 

दिल के बरखे पे लिखे दर्द भला कम हैं क्या

‘राज’ जज्बात कलम से ये निकलते क्यूँ हैं  

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 12, 2015 at 11:44am

आ० लक्ष्मण भैया,आप जैसे ग़ज़लकार से दाद पाना मेरे लिए बहुत मायने रखता है दिल से बहुत- बहुत आभार.  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 12, 2015 at 11:43am

प्रिय तनूजा जी,आप जैसे गंभीर रचनाकार से  दाद पाकर ग़ज़ल संतुष्ट होती है तहे दिल से आभार.  

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 12, 2015 at 11:39am

आ0 राजेश बहन , इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए कोटि कोटि बधाई .

Comment by Tanuja Upreti on August 12, 2015 at 11:33am

क्या खूब लिखती हैं मै'म हर शब्द  भावनाओं से भीगा हुआ I बहुत सुन्दर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 12, 2015 at 9:39am

आ० गिरिराज जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ. तहे दिल से आभार आपका |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 12, 2015 at 9:39am

सुब्ह होते ही ये हालत बदलते क्यूँ हैं---हालत के स्थान पर हालात पढ़ें (टंकण त्रुटी आ गई है )


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 12, 2015 at 8:30am

आदरणीया राजेश जी , मतला बहुत खूब कहा है  आपने , क्या बात है

पुरख़तर इश्क की राहें हैं तो चलते क्यूँ हैं

चोट खाकर ही मुहब्बत में सँभलते क्यूँ हैं   --  लाजवाब --  ग़ज़ल के लिये और इस मतले के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

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