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ग़ज़ल -- ‘चलो अपनी सुनाते हैं’ (मिथिलेश वामनकर)

1222—1222—1222—1222

 

घरौंदें, आस में अक्सर यही जुमलें सुनाते हैं 

‘परिन्दें, शाम होती है तो घर को लौट आते हैं’

 

वों तपते जेठ सा तन्हां हमेशा छोड़ जाते हैं

मगर आँखों के सावन में भला क्यों लौट आते है

 

कभी जिनके उजालों से रहे हैं खून के रिश्तें

अंधेरों की कदमबोसी वो करने रोज़ जाते हैं

 

मुझे महसूस होती है तरसती मुन्तजिर आँखें

चलो अब गाँव चलते है कि माँ को देख आते हैं

 

अजब हैं लोग सच कहने में भी नज़रें चुरा लेंगे

मगर जब झूठ कहना हो तो गंगाजल उठाते है

 

मयस्सर है नहीं यारों कफ़न के वास्ते कपड़ा

न जाने किस तरह से वो नए परचम बनाते हैं

 

न हंसने का इरादा है न रोने की यहाँ फुरसत

लगे है सब इसी जिद में ‘चलो अपनी सुनाते हैं’

 

इरादे आसमानी हो तो रस्ते खुल ही जायेंगे

परिन्दें ठान लेते है तो तिनके ढूंढ़ लाते हैं

 

अगर दिल में ठिकाना है, तो क़दमों को खबर कर दो

ये मंदिर और मस्जिद की तरफ ही दौड़ जाते हैं

 

जो तनहाई बुजुर्गों की अगर अब भी नहीं समझे

चलो तुमको हमारे गाँव के बरगद दिखाते हैं

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by गिरिराज भंडारी on August 11, 2015 at 3:18pm

आदरनीय मिथिलेश भाई , क्या खूब गज़ल कही है , हर शे र के लिये अलग अलग दाद हाज़िर है , कुबूल कीजिये ।

अंधेरों को अँधेरों   कर लीजियेगा  और अगर अच्छा लगे  तो - चलो अब गाँव चलते है कि माँ को देख आते हैं  -  इस मिसरे को - 
चला अब गाँव चलके आज माँ को देख आते हैं  (  कि को हटाना उद्देश्य है , चाहे तो आप रहने दें , मुझे भर्ती का शब्द लगा )


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 11, 2015 at 1:11pm

हार्दिक आभार आ. तनूजा जी, सादर 

Comment by Tanuja Upreti on August 11, 2015 at 1:04pm

सुन्दर गजल मिथिलेश जी ,सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 11, 2015 at 12:45pm

आदरणीय मनोज भाई जी,  ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 11, 2015 at 12:44pm

आदरणीय दिनेश भाई जी,  ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर 

Comment by मनोज अहसास on August 10, 2015 at 7:23pm
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल सर
एक एक शेर में एक एक कथा
नमन
सादर
Comment by दिनेश कुमार on August 10, 2015 at 6:05pm
परिन्दें ठान लेते है तो तिनके ढूंढ़ लाते हैं...लाजवाब
बेहतरीन ग़ज़ल हुई है भाई मिथिलेश जी। इस बह्र पर आपकी कई अच्छी ग़ज़लें हुई हैं। हार्दिक दाद स्वीकार करें भाई। अभी तक इस बह्र पर कोई ग़ज़ल नहीं कह सका हूँ मैं।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 10, 2015 at 1:35pm

एक निवेदन - परीन्दें को परिन्दें पढ़ने की कृपा करें. धन्यवाद 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 10, 2015 at 1:33pm

आदरणीय रवि जी, ग़ज़ल पर आपकी दाद और सार्थक प्रतिक्रिया पाकर आश्वस्त हुआ.  ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.

आपने सही कहा परीन्दें में 2+2=5 वाली भूल हुई है. सही वर्तनी 'परिन्दें' ही है. गलती सुधारता हूँ. मार्गदर्शन के लिए हार्दिक धन्यवाद 

सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 10, 2015 at 1:30pm

आदरणीय सुशील सरना सर, आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया सदैव मेरा मनोबल बढाती है. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर 

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