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मन का गुबार (लघुकथा) // --शुभ्रांशु

 “हैलो माँ ! कैसी हो ? खाना खा लिया ? भाभी का क्या हाल है?” माला ने फ़ोन पर अपनी माँ से सवालों की झड़ी लगा दी.

“कहाँ खाया है बेटा? एक तू है जो रोज़ फ़ोन करके आधा-एक घंटा बात कर मन हल्का कर देती है. वर्ना तेरी भाभी को तो हमसे कोई मतलब ही नहीं. बस लगी रहती है अपने कमरे में.. फ़ोन पर.. जब खाना बन जायेगा तो खा ही लूँगी..”, माँ का शिकायत भरे लहजे में जबाब आया.

“ऐसे थोडे ही चलेगा, माँ !“

तभी अन्दर के कमरे से माला की सास की आवाज आयी, “ बहूऽऽ, दोपहर होने को आयी, सुबह का नाश्ता भी मिलेगा क्या..? या फ़ोन से ही चिपके रहना है ?”

“तो क्या अब अपने परिवार वालों से भी बातें न करूँ ?.. एक वही लोग तो हैं, जिनसे बातें कर मन हल्का कर लेती हूँ..”, माला का तमतमाता हुआ ज़वाब आया.

**********

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by वीनस केसरी on May 18, 2015 at 11:52pm

 “हैलो माँ ! कैसी हो ? खाना खा लिया ? भाभी का क्या हाल है?” माला ने फ़ोन पर अपनी माँ से सवालों की झड़ी लगा दी.

इस वाक्य के बाद मुझे लघुकथा का जो अंत समझ आया आगे अक्षरशः वही हुआ ....

समझ नहीं आता अब अपनी पीठ ठोकूं या लघुकथा को साधारण कहूं,
वैसे अपनी पीठ ही ठोकनी पड़ेगी क्योकि पाठक आपकी पीठ ठोंक रहे हैं ....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 18, 2015 at 11:02pm

हा हा हा .... कमाल की लघुकथा 

सफल लघुकथा. पंच अपना पूरा प्रभाव छोड़ता है 

बधाई इस प्रस्तुति पर 

Comment by Hari Prakash Dubey on May 18, 2015 at 10:47pm

आदरणीय   Shubhranshu Pandey जी , सुन्दर रचना के लिए  हार्दिक बधाई  आपको  , पर  एक सवाल  मन  मे...

//जब खाना बन जायेगा तो खा ही लूँगी..”, माँ का शिकायत भरे लहजे में जबाब आया.

“ऐसे थोडे ही चलेगा, माँ !“

तभी अन्दर के कमरे से माला की सास की आवाज आयी, “ बहूऽऽ, दोपहर होने को आयी, सुबह का नाश्ता भी मिलेगा क्या..? //    लगता है   इस  रात  की   सुबह  नहीं .........!

Comment by aman kumar on May 18, 2015 at 3:31pm

मन मिले हो तो मतभेद नही होंते , पर ये बेटी और  बहू की  खाई ... कोन भरेंगा ॥

सही नव्ज पकड़ी आपने ! 

आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 18, 2015 at 1:06pm

हमारे यहाँ कहते थे ....घर घर मटियाले चूल्हे या जिसे नहीं देखा वही ठीक है ..आज कहेंगे कहानी घर घर की ....एक दुसरे से ही माँ बेटी  मन का गुबार निकाल सकती हैं ये जानते हुए तथा खुद करते हुए भी  हर सास को बहु का मायके वालों से बात करना  क्यों अखरता है ?

पर एक बात तो सत्य है की इस युवा पीढ़ी के साथ बुजुर्ग हर जगह पिस रहे हैं तिरस्कृत हो रहे हैं|बहुत ही सशक्त लघु कथा हुई बहुत बहुत बधाई शुभ्रांशु भैया.   

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 18, 2015 at 10:15am

बहुत बेहतर लघुकथा, आदरणीय शुभ्रांशु जी. एक छोटी सी असुरक्षित मन की समस्या को बड़ी सुन्दरता से बयां किया आपने. बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by Shyam Narain Verma on May 18, 2015 at 10:07am
क्या बात है .... बहुत उम्दा | बधाई आप को 

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