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ग़ज़ल -- बह्र-ए-शिकस्ता में एक प्रयास (मिथिलेश वामनकर)

फ़'इ'लात फ़ाइलातुन फ़'इ'लात फ़ाइलातुन (बह्र-ए-शिकस्ता)

1121 - 2122 - 1121 - 2122

 

मेरे नाम से न चाहे तू अगर तो मत सदा दे  

मुझे देख के मगर तू, कभी हाथ तो हिला दे

 

मैं यहाँ पढूँ वजीफा- कोई आशियाँ न उजड़े

तू वहाँ किसी गली को कोई पुरअसर दुआ दे

 

कभी वसवसा रहा हूँ कभी मुब्तला रहा हूँ

दे सुकून की दुशाला, मुझे चैन की कबा दे

 

यहाँ अपने आप से मैं रहा बेखबर हमेशा

मैं मशीन हो गया हूँ मुझे आदमी बना दे

 

अभी लौट के जो देखा मेरा गाँव खो गया है

न मिला कोई गले से, न कोई मुझे सदा दे

 

जो नसीब में है कासा तो गुमान क्यों ज़रा सा

ये हुनर नहीं है मुझमें, मुझे माँगना सिखा दे

 

तू अगर ख़ुदा नहीं तो मेरा नाख़ुदा ही बन जा

मुझे जिस्म मिल गया है मुझे रूह का पता दे

 

यहाँ रात ढल रही है, कोई तीन बज रहा है

नया शेर हो सहर तक मुझे फलसफा नया दे

 

ये तबाह ज़ार आलम कई गिद्ध शादमां हैं

कि हलाक देख दिल्ली, उसे कोई आसरा दे  

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by वीनस केसरी on May 6, 2015 at 2:13am

मेरे नाम से न चाहे तू अगर तो मत सदा दे  

मुझे देख के मगर तू, कभी हाथ तो हिला दे............वाह वा

 

मैं यहाँ पढूँ वजीफा- कोई आशियाँ न उजड़े

तू वहाँ किसी गली को कोई पुरअसर दुआ दे...खूबसूरत अंदाज़

 

कभी वसवसा रहा हूँ कभी मुब्तला रहा हूँ

दे सुकून की दुशाला, मुझे चैन की कबा दे........... क्या कहने

 

यहाँ अपने आप से मैं रहा बेखबर हमेशा

मैं मशीन हो गया हूँ मुझे आदमी बना दे.............. हासिले ग़ज़ल

 

अभी लौट के जो देखा मेरा गाँव खो गया है

न मिले कोई गले से, न कोई मुझे सदा दे................ जिंदाबाद

 

जो नसीब में है कासा तो गुमान क्यों ज़रा सा

मुझे ये हुनर नहीं है, मुझे माँगना सिखा दे............. उम्दा शेर है  
मुझे ये हुनर नहीं है ,,, भाषा व्याकरण अनुसार शुद्ध करते हुए इसे यूं करना उचित होगा ...ये हुनर नहीं है मुझमें 

 

तू अगर ख़ुदा नहीं तो मेरा नाख़ुदा ही बन जा

मुझे जिस्म मिल गया है मुझे रूह का पता दे............. वाह वा

 

यहाँ रात ढल रही है, सवा तीन बज रहा है

मेरा शेर हो रहा है कोई फलसफा नया दे,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, :)))))))))

 

ये तबाह ज़ार आलम कई गिद्ध शादमां हैं

कि हलाक देख दिल्ली, उसे कोई आसरा दे  ............. बढ़िया

Comment by Dr. Vijai Shanker on May 5, 2015 at 11:28pm
यहाँ अपने आप से मैं रहा बेखबर हमेशा
मैं मशीन हो गया हूँ मुझे आदमी बना दे ॥
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल, प्रिय मिथिलेश जी, बधाई, बहुत बहुत , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 5, 2015 at 11:21pm

कृपया इस शेर को इस तरह पढ़ने का कष्ट करें -

अभी लौट के जो देखा मेरा गाँव खो गया है

न मिला कोई गले से, न कोई मुझे सदा दे


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 5, 2015 at 11:19pm

आदरणीय गिरिराज सर, सराहना के लिए हार्दिक आभार 

आपने सही कहा वो मिले नहीं मिला ही होगा. 

हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 5, 2015 at 11:01pm

आदरनीय मिथिलेश भाई , बढिया मतला से शुरू हुई गज़ल अंत तक शान्दार हुई है ।

यहाँ अपने आप से मैं रहा बेखबर हमेशा

मैं मशीन हो गया हूँ मुझे आदमी बना दे 

तू अगर ख़ुदा नहीं तो मेरा नाख़ुदा ही बन जा

मुझे जिस्म मिल गया है मुझे रूह का पता दे  --- लाजवाब शे र हुये हैं 

न मिले कोई गले से, न कोई मुझे सदा दे  -- ये मिसरा मुझे ग्रामर के हिसाब से सही नहीं लग रहा है 

न मिला कोई गले से  -- होना चाहिये शायद  ।

  

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