For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल - लफ्ज़ सजाना पड़ता है.... (मिथिलेश वामनकर)

22—22—22—22—22—2

 

पलकों से हर लफ्ज़ सजाना पड़ता है

आँसू पीकर गीत बनाना पड़ता है  

 

मंहगाई में  झूठा रौब जताने को

चिल्लर को तनख्वाह बताना पड़ता है

 

नीला-नीला पानी कैसे लाल हुआ

बच्चों से हर राज़ छुपाना पड़ता है

 

दुनिया से जब यार मुकाबिल होता हूँ,

हर तेवर, हर रंग दिखाना पड़ता है

 

पत्थर जैसा जान हमे वो पेश आये

जिन्दा है अहसास कराना पड़ता है

 

जैसा दिखता है, वैसा होता है कब

दोनों में बस फर्क लगाना पड़ता है

 

रूह गुलामी से देखो कितनी लिपटी

अपना खुद को शोर सुनाना पड़ता है

 

आला अफसर की फितरत टॉमी जैसी

हर दिन अपना कौर  खिलाना पड़ता है

 

उनके दुःख में झूठें आँसू लाने को

झूठा हर अहसास जगाना पड़ता है

 

दुनिया का सच जाहिर करने ग़ालिब को

खुद को ही बदनाम जताना पड़ता है

 

 

------------------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
----------------------------------------------------

Views: 814

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 11, 2015 at 4:19am

आदरणीय राजकुमार आहूजा जी हार्दिक आभार 

Comment by rajkumarahuja on April 10, 2015 at 11:06am

एक अच्छी और खूबसूरत ग़ज़ल के लिए साधुवाद माननीय मिथिलेश वामनकर जी  !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 9, 2015 at 11:38pm

आदरणीय शिज्जु भाई इस बार मामला दूसरा हो गया ... धीरज इतना रखा कि ठीक ठाक लिखी ग़ज़ल में संशोधन करते करते त्रुटियाँ पैदा कर ली... मिसरे के बीच के लफ्ज़ बदलता गया और स्त्रीलिंग -पुल्लिंग से ध्यान भटक गया ... मिसरे बह्र में फिट हो गए ... फिर गलतियाँ ही गलतियाँ .... रोटी खिलाना पड़ता है, बात बताना पड़ता है ... खैर गुनीजनों के मार्गदर्शन ने सही दिशा दिखा दी.  मेरी पिछली ग़ज़ल पर आदरणीय दिनेश भाई जी ने आज कमेन्ट किया है कि -\\आप भी उस्ताद बन गए हो।\\ --- इधर मैं इस ग़ज़ल की त्रुटियों पर शरम से पानी पानी हो रहा हूँ अगर अवचेतन मन में भी धोके से उस्तादी घर कर रही हो तो वो भी चुपचाप निकल गई है. खैर 

आपकी सकारात्मक उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. अभ्यास जारी है उम्मीद है जीवन में कम अज कम एक शेर तो अच्छा कह जाऊंगा. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 9, 2015 at 7:22pm

मिथिलेश जी अधीरता स्वाभाविक है वैसे ग़ज़ल असरदार है इस्लाह के बाद और भी बेहतर हो जायेगी इस मंच की यही खासियत है यदि कोई कसर रह जाये तो बाद में भी सुधारा जा सकता है। आदरणीय समर कबीर जी का धन्यवाद ऐसे हम सभी का मार्गदर्शन करते रहें। मिथिलेश जी को बधाई इस रचना के लिये।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 9, 2015 at 7:08pm

आदारणीय मिथिलेश भाई , गिनती  में गलतियों  संख्या  अधिक होने के कारण  मुझे पोस्ट करने में जल्दबाज़ी का अंदाज़ा लगाना पड़ा   था । 10 दिन गज़ल रुकी थी पढ़ के अच्छा लगा , बहुत परिर्वतन करने से कभी कभी कोई बात छूट जाती है , ऐसा होना भी स्वाभाविक है  , अब और ध्यान दीजियेगा । गलतियाँ सब से होतीं है , बस लगे रहिये , धीरे धीरे सब ठीक होते जायेगा ॥ सादर ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 9, 2015 at 5:05pm
आदरणीय नज़ील जी हार्दिक आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 9, 2015 at 5:04pm
आदरणीय डॉ विजय शंकर सर हार्दिक आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 9, 2015 at 5:03pm
आदरणीय श्याम नरेन जी हार्दिक आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 9, 2015 at 5:02pm
आदरणीय कृष्ण भाई जी हार्दिक आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 9, 2015 at 3:53pm

आदरणीय गिरिराज सर,

आदरणीय समर कबीर जी,

 

आज आप दोनों गुणीजनों से एक साथ निवेदन कर रहा हूँ. सर्वप्रथम तो ग़ज़ल पर मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए हार्दिक आभार. ये ग़ज़ल मैंने जल्दबाजी में पोस्ट नहीं की है बल्कि त्रुटिपूर्ण संशोधन किये है जिससे कहन की तार्किकता के साथ न्याय नहीं कर पाया. 10 से 15 दिन पहले तीन गज़लें लिखी थी. ये ग़ज़ल भी उन्ही में से एक है. ये ग़ज़ल मैंने लगभग 10 दिन पहले लिखी थी और इसमें कई बार संशोधन किये है, लेकिन संशोधन करते हुए शब्दों को बदलते गया किन्तु मिसरे में पैदा हो रहे लिंग दोष और तार्किकता पर ध्यान नहीं गया. कल सोचा कि ग़ज़ल पर काफ़ी मेहनत हो गई है ये सोचकर ग़ज़ल पोस्ट कर दी. आपने जिस अशआर में त्रुटी बताई है निवेदन है कि-

 

‘आधी रोटी रोज’ के स्थान पर ‘हर दिन अपना कौर’ लिखा था फिर सोचा कि रोटी का उल्लेख आवश्यक है, बात में वज्न आएगा और ‘आधी रोटी रोज’ लिखकर मिसरे को दुरुस्त मान लिया.

इसी प्रकार “बच्चों से हर वक़्त छुपाना पड़ता है” इसमें पहले वक़्त लिखा था फिर  ‘वक़्त’ से बदलकर ‘खेल’ किया फिर ‘बात’ कर दिया.

खुद को दिल का शोर सुनाना पड़ता है / खुद को ही आवाज सुनाना पड़ता है / अपनी खुद को चीख सुनाना पड़ता है............. इस मिसरे में भी बदलाव के क्रम गंभीर त्रुटी कर बैठा.

बाजारी जज़्बात जगाना पड़ता है .... इस मिसरे में भी बदलाव का क्रम इस तरह से था- अपना हर अहसास/ झूठा फिर अहसास/ बाजारी अहसास / बाजारी जज़्बात, चूंकि अहसास का प्रयोग एक और मिसरे में कर चुका था इसलिए अहसास को बदलकर सममात्रिक शब्द जज़्बात ले लिया.

 

घरवालों पर अपना रौब जताने को

(इसे बदलकर यूं किया था)- घर में अपना झूठा रौब जताने को

चिल्लर को तनख्वाह बताना पड़ता है

यहाँ कहना यही था कि इस महगाई के दौर में तनख्वाह चिल्लर लगती है लेकिन तनख्वाह लाने और उसका अहसास कराके अपना रौब दिखाना पड़ता है .... लेकिन शायद जितना और जैसा सोच रहा था उतना शब्दों से अभिव्यक्त नहीं हो पाया.

 

आप लोगो के मार्गदर्शन अनुसार इस ग़ज़ल के मिसरे इस तरह निवेदित है-

 

पलकों से हर लफ्ज़ सजाना पड़ता है

आँसू पीकर गीत बनाना पड़ता है

 

नीला नीला पानी कैसे लाल हुआ

बच्चों से हर राज़ छुपाना पड़ता है

 

आला अफसर की फितरत टॉमी जैसी

हर दिन अपना कौर खिलाना पड़ता है

 

रूह गुलामी से देखो कितनी लिपटी

अपना खुद को शोर सुनाना पड़ता है

 

उनके दुःख में झूठे आँसू लाने को

झूठा हर अहसास जगाना पड़ता है

 

आपने ग़ज़ल को समय दिया और अमूल्य मार्गदर्शन के प्रदान किया उसके लिए हृदय से आभारी हूँ. भविष्य में सावधानी रखूंगा और त्रुटियाँ कम करने का सदैव प्रयास करता रहूँगा. सादर  

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

Re'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
20 hours ago
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-181
"स्वागतम"
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आदरणीय रवि भाईजी, आपके सचेत करने से एक बात् आवश्य हुई, मैं ’किंकर्तव्यविमूढ़’ शब्द के…"
yesterday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-181

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
Wednesday
anwar suhail updated their profile
Dec 6
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

न पावन हुए जब मनों के लिए -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

१२२/१२२/१२२/१२****सदा बँट के जग में जमातों में हम रहे खून  लिखते  किताबों में हम।१। * हमें मौत …See More
Dec 5
ajay sharma shared a profile on Facebook
Dec 4
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"शुक्रिया आदरणीय।"
Dec 1
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, पोस्ट पर आने एवं अपने विचारों से मार्ग दर्शन के लिए हार्दिक आभार।"
Nov 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। पति-पत्नी संबंधों में यकायक तनाव आने और कोर्ट-कचहरी तक जाकर‌ वापस सकारात्मक…"
Nov 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदाब। सोशल मीडियाई मित्रता के चलन के एक पहलू को उजागर करती सांकेतिक तंजदार रचना हेतु हार्दिक बधाई…"
Nov 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार।‌ रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर रचना के संदेश पर समीक्षात्मक टिप्पणी और…"
Nov 30

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service