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ग़ज़लों को भी गीला होते देखा है (मिथिलेश वामनकर)

22-22-22-22-22-2

जो रह-रहकर इस सीने में उठता है

तेरा मेरा दर्द पुराना किस्सा है

 

उनकी आँखों से उतरे हर आँसू से

ग़ज़लों को भी गीला होते देखा है

 

खौफ़जदा हूँ अख़बारों की ख़बरों से

आज हुकूमत ने जाने क्या सोचा है

 

अँधियारा क्यूं कायम रहता है दिल में 

तल्ख़ सवालों ने सूरज को घेरा है

 

चार किताबें मेरे हिस्से की दे दो

आखिर इक लड़की ने भी कुछ बोला है

 

झरते पत्तों ने आखिर ये बतलाया

हर एक शज़र को बूढ़ा होना पड़ता है

 

इस मौसम से बात हुई जब आहिस्ता

इस मौसम के साथ ज़माना रोता है

 

उस घटना के सीने पर तारीख लिखी

अब सीने से जर्द लहू सा बहता है

 

पायल की झंकार सुनाकर बातों में

बातों-बातों में शमसीर गलाता है

 

देहाड़ी को आज चला ले मोबाइल

मुस्तकबिल की खातिर ये भी अच्छा है

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 21, 2015 at 8:45pm

आदरणीय सुधीजनों का आभार व्यक्त करता हूँ इस रचना पर मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए.

व्यस्तता के कारण प्रत्युत्तर विलम्ब से देने के लिए क्षमा चाहता हूँ.

ग़ज़ल की त्रुटियों को यथाशीघ्र सुधारने का प्रयास करता हूँ. 

सादर 

Comment by Samar kabeer on April 17, 2015 at 2:59pm
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,

"गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में
वो तिफ़्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलें "

इतना मायूस होने की कोई ज़रुरत नहीं है,आप अच्छा लिखते हैं और बहुत अच्छा लिखते हैं,कुछ दिन पहले का मेरा कमेंट याद कीजिये जिस में मैंने लिखा था कि कहीं आपको किसी की नज़र न लग जाए,और देखिये नज़र लग गई, लेकिन इससे विचलित न हों,ग़लतियाँ इंसान से ही होती हैं,अरूज़ के बारे में उतना ही ज्ञान रखिये जितना आवश्यक हो ,अरूज़ को दिमाग़ पर सवार न होने दें,जो शाईर अरूज़ के माहिर होते हैं उनके यहाँ अक्सर शैर फुसफुसे होते हैं,ये मैं नहीं कहता दानिशवरों का क़ौल है,मश्क़-ए-सुख़न (अभ्यास) जारी रखिये फिर एक बार कहूँगा कि आप बहुत अच्छा लिखते हैं और आगे भी अच्छा लिखते रहेंगे,इसी उम्मीद के साथ अपनी बात ख़त्म करता हूँ |

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 17, 2015 at 1:15am
आदरणीय सौरभ सर लिखने और सुधरने का क्रम जारी है और रहेगा । सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 17, 2015 at 1:12am
आदरणीय वीनस भाई जी आपके मार्गदर्शन अनुसार ही प्रयास कर रहा हूँ। पोस्ट करने की जल्दबाज़ी को जरा काबू में करना होगा। आपके मार्गदर्शन से सदैव प्रोत्साहन ही मिलता है। आपके चेप्टर पढ़कर तो ग़ज़ल लिखना सीखा है और सीख रहा हूँ। इसलिए आप जब कोई मार्गदर्शन प्रदान करते है तो मैं प्रेरित होता हूँ और बेहतर करने के लिए। अब तक 8 से 10 दिन तक ग़ज़ल को समय देता था किन्तु प्रतिदिन। लेकिन अब 15 से 20 दिन समय दूंगा वो भी 3-4 दिन के अंतराल में। इस अमूल्य मार्गदर्शन को साझा करने के लिए हमेशा की तरह हार्दिक आभारी हूँ। मोबाइल से टाइप करने की मज़बूरी के चलते संक्षिप्त में अपनी बात कह रहा हूँ । सादर।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 16, 2015 at 8:56pm

वीनस भाई ही नहीं अकसर सभी रचनाकर्मी ऐसा ही करते हैं. फिर हम जैसे भी होते हैं जो अंत तक अपनी सद्यः प्रस्तुत रचना से आश्वस्त नहीं हो पाते और पहली दो-तीन बधाइयों को मुँहदेखी भर मानते हैं. कई बार तो ’उस्ताद साथी’ हमजैसों की पोस्ट पर ज़ल्दी आते भी नहीं.. :-))

भइया, लिखते रहिये और सुधरते रहिये..

शुभेच्छाएँ

Comment by वीनस केसरी on April 16, 2015 at 8:05pm

भाई जी मेरे ख्याल से लगभग सभी शाइरों की ग़ज़ल का प्रथम स्वरूप तो ऐसा ही होता है, कच्चा या अधपका इसलिए इसमें कुछ अलग नहीं है| उस्ताद लोग ही एक बार में साफ़-सुथरी ग़ज़ल कह पाते हैं ...यही तो उस्तादी है

ग़ज़ल के "first draft" को माँजने और चमकाने में जो समय देना आवश्यक था वो आपने शायद इस ग़ज़ल को नहीं दिया
"अधिक कहना या लगातार कहना" मेरे ख्याल से कोई दिक्कत की बात नहीं है
बस जो ताज़ा कलाम कहा है उसे तुरंत पोस्ट न करके स्वयं ३ - ३ दिन के अंतराल में ३-४ बार संशोधन के लिए देख लिया जाए तो कमियां ख़ुद बा ख़ुद दूर हो जाती हैं |

अगर ग़ज़ल कहने के बाद १५ - २० दिन सब्र से काम ले लें तो जो ग़ज़ल तैयार होगी वो "तुरंत लिखी ग़ज़ल" से बहुत बेहतर होगी ...

हाँ अगर अरूज़ की बारीकियां ही न पता हों तो अलग बात है

मैं तो यही करता हूँ इसलिए आपसे साझा कर लिया ...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 16, 2015 at 10:28am
आदरणीय समर कबीर जी, आदरणीय गिरिराज सर और आदरणीय वीनस भाई जी, आप लोगो की प्रतिक्रिया से थोड़ा डर गया हूँ। लग रहा है मेरी ग़ज़लों का स्तर धीरे धीरे कम हो रहा है और मैं बहुत अशआर कहने लगा हूँ इसलिए सोचता हूंगज़ल लेखन को थोड़ा विराम दूं क्योकि ज्यादा अभ्यास के चक्कर में लगातार कमजोर गज़लें लिखने लगा हूँ । अब पुनः अध्ययन करता हूँ उसके बाद ही पुनः प्रयास करूँगा। एक ग़ज़लजो पोस्ट डेटेड पोस्ट कर चूका हूँ उसका भी यही हश्र हो शायद। वैसे मैंने कोशिश पूरी की थी किन्तु सफल नहीं हो पाया। अब थोड़ा विराम के बाद ही प्रयास करूँगा। इस ग़ज़ल को जितने मन से लिखा था बिलकुल नहीं लग रहा था कि इतनी कच्ची ग़ज़ल कह रहा हूँ मगर आप गुणीजनों के मार्गदर्शन से वास्तविकता का अहसास हो गया है। इस महीने कुछ शायरों को और पढ़ता हूँ क्योकि लिखने के चक्कर में पढ़ना छूट गया है । उसके बाद एक पक्की ग़ज़ल का प्रयास करता हूँ। सादर
Comment by shree suneel on April 16, 2015 at 1:31am
अँधियारा क्यूं कायम रहता है दिल में
तल्ख़ सवालों ने सूरज को घेरा है"
आ0 मिथलेश वामनकर सर, बढ़िया.. खूब.. बधाई
Comment by वीनस केसरी on April 16, 2015 at 1:05am

ओह
एक और कच्ची ग़ज़ल ...

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 15, 2015 at 10:41pm

चार किताबें मेरे हिस्से की दे दो

आखिर इक लड़की ने भी कुछ बोला है

वाह!..नारी शिक्षा पर अच्छा शेर!

 

पायल की झंकार सुनाकर बातों में

बातों-बातों में शमसीर गलाता है

शमसीर तो नही जानता पर शमशीर का अर्थ तलवार/लोहे का अस्त्र होता है....यानि मीठी मीठी बातों के जादू से पुरानी अदावत मिटाने का प्रयास करता है,अर्थ होना चाहिए!

आदरणीय मिथिलेश सर सुन्दर गज़ल पर दाद कबूल करें! इस बार धार कुछ कम नजर आई..आपकी पिछली बेहतरीन प्रस्तुतियों को देखते हुए, अपेक्षाएं बहुत ही ज्यादा होंना लाजिमी ही है!

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