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ग़ज़ल-- मैं ही फ़क़त नादान हूँ...... (मिथिलेश वामनकर)

2212---2212---2212---2212

 

देखो मुझे फिर ये कहो- क्या आज भी इंसान हूँ

क्यों इस तरह जतला रहें मैं कब कोई भगवान हूँ

 

ईमान का ऐलान हूँ तूफ़ान का फरमान हूँ

बरसों दबा के तू जिसे बैठा वही अरमान हूँ

 

दो पंछियों को पेड़ पर बैठे हुए देखा मगर

हँसते नहीं रोते नहीं ये देखकर हैरान हूँ

 

इक शख्स जो भीतर मेरे बस मौन सा बैठा हुआ

उस शख्स के किरदार से यारों बहुत हलकान हूँ

 

हर आदमी कहता यही पाया गया है आजकल

मौका नहीं तो मैं ख़ुदा मौका मिला शैतान हूँ

 

अब छोडिये उस बात को, बातें बढ़े क्या फायदा

माना चलो फाजिल तुम्ही मैं ही फ़क़त नादान हूँ

 

बस घर मेरा ताउम्र ही इस जिस्म पर तारी रहा

दीवार दर मैं था कभी, अब तो फ़क़त दालान हूँ  

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 26, 2015 at 8:23am
आदरणीया राजेश दीदी सम्बोधन में टंकण त्रुटी के कारण आदरणीय टाइप हो गया उसे कृपा कर आदरणीया पढ़ने कष्ट करें। सादर नमन

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 25, 2015 at 10:46pm
आदरणीय राजेश दीदी आपको अशआर पसंद आये लिखना सार्थक हुआ। आपका स्नेह मिल जाता है तो सदैव मनोबल बढ़ता है। सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभारी हूँ। नमन।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 25, 2015 at 10:40pm

इक शख्स जो भीतर मेरे बस मौन सा बैठा हुआ

उस शख्स के किरदार से यारों बहुत हलकान हूँ----वाह्ह्ह्ह  बहुत खूब 

 

हर आदमी कहता यही पाया गया है आजकल

मौका नहीं तो मैं ख़ुदा मौका मिला शैतान हूँ----मौकापरस्ती का बेजोड़ उदाहरण 

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई मिथिलेश भैया बधाई आपको 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 25, 2015 at 10:01pm

आदरणीय विनय कुमार सिंह जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार ... 

Comment by विनय कुमार on March 25, 2015 at 9:27pm

// बस घर मेरा ताउम्र ही इस जिस्म पर तारी रहा
दीवार दर मैं था कभी, अब तो फ़क़त दालान हूँ //
वाह वाह , बहुत उम्दा | बहुत बहुत बधाई आदरणीय..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 25, 2015 at 9:10pm

आदरणीय कृष्ण मिश्रा भाई जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार ... 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 25, 2015 at 9:04pm

इक शख्स जो भीतर मेरे बस मौन सा बैठा हुआ

उस शख्स के किरदार से यारों बहुत हलकान हूँ  वाह! वाह! वाह! बेहद उम्दा!

अब छोडिये उस बात को, बातें बढ़े क्या फायदा

माना चलो फाजिल तुम्ही मैं ही फ़क़त नादान हूँ     खुबसूरत तंज किया है आपने सर!

बस घर मेरा ताउम्र ही इस जिस्म पर तारी रहा

दीवार दर मैं था कभी, अब तो फ़क़त दालान हूँ     लाजव़ाब!

आदरणीय मिथिलेश सर! आप कैसे इतने कम समय में इतनी सुन्दर गजल कह लेते है! आपका गज़ल के प्रति समर्पण वन्दनीय है!!

अभिनन्दन!


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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 25, 2015 at 8:46pm

यह ग़ज़ल आदरणीय विजय निकोर सर की कविता की पंक्तियों -- \\कब कहा मैंने भगवान हूँ मैं\तुमने मुझको भगवान बनाया\\ से प्रेरित होकर मैंने कही है. आदरणीय  विजय निकोर सर का हृदय से आभारी हूँ. नमन 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 25, 2015 at 8:06pm

आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार ... नमन 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 25, 2015 at 8:05pm

आदरणीय दिनेश भाई जी आपकी मुक्तकंठ प्रशंसा पर हमेशा झूम जाता हूँ. नए अभ्यासी को सकारात्मक प्रतिक्रिया मिल जाती है तो बहुत उत्साहवर्धन होता है ... सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 

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