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लघुकथा : गैरत (गणेश जी बागी)

शेखर वेश्यावृति पर केन्द्रित एक किताब लिख रहा था, किन्तु उसे पत्रकार समझ इस धंधे से जुड़ी कोई भी लड़की कुछ बताना नहीं चाहती थी, आखिर उसने ग्राहक बन वहाँ जाने का निर्णय लिया.

“आओ साहब आओ, पाँच सौ लगेंगे, उससे एक पैसा कम नहीं”
शेखर ने हाँ में सर हिलाया और उसके साथ कमरे में चला गया.

“सुनो, मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूँ”

“बाssत ?”

“हां, कुछ सवाल पूछना चाहता हूँ”

“ऐ... साहेब, काहे को अपना और मेरा समय खोटी कर रहे हो, आप अपना काम करो और यहाँ से निकलो”

बहुत आग्रह के बाद भी जब वो कुछ भी बताने को तैयार नहीं हुई तो शेखर उठा और उसकी हथेली पर पाँच सौ का नोट रखकर चलने लगा.
“ऐ साहेब, ये पैसे आप वापस रखों, मैं बगैर काम पैसे नहीं लेती”.

(मौलिक व अप्रकाशित)
पिछला पोस्ट => लघुकथा : वात्सल्य

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 28, 2015 at 3:16pm

गणेश भाई, लघुकथा में जिस माहौल की चर्चा है वहाँ ’आप’ या ’तुम’ का फ़र्क़ मिट जाता है, ऐसा मैंने सुना है.

सच ही होगा.. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 28, 2015 at 3:11pm

आदरणीया सीमाजी,

//कथा का अंत एक पत्रकार के बहुत से प्रश्नों का जवाब भले दे सके पर एक प्रश्न का उत्तर ज़रूर देता है कि इस समाज के भी अपने उसूल हैं,जिसके प्रति वो ईमानदार हैं .............ये उनके लिए सिर्फ एक काम है ........और अपने काम के प्रति वो पूरी गैरत के साथ जवाबदेही  प्रस्तुत करती हैं //

आपके उपर्युक्त कहे को मैं स्वीकार करता हूँ. यही इस लघुकथा का मूल विन्दु भी है जो यह कथा बखूबी संप्रेषित करती है.

मैंने जब इस लघुकथा की टिप्पणी में मण्टो का नाम लिया तो उसका कारण यही था कि ऐसे विन्दुओं को ही मैं रेखांकित कर सकूँ जिसका आपने ज़िक्र किया है.
गणेश भाई की रचनात्मक संवेदनशीलता को अभी तक के सभी पाठकों ने स्वीकार किया है. आगे बात लघुकथा की गठन विशेष कर शाब्दिक गठन की ओर मुड़ गयी, जो इस मंच की विशेषता है. वैसे, आदरणीया, आप भी अबतक जान-समझ चुकी हैं, ऐसी चर्चाएँ तो खुल कर यहीं इसी मंच पर हो रही हैं. बिना अधिक आयँ-बायँ के.. ! है न ?
कहते भी हैं..  
लन्दन देखा, पेरिस देखा और देखा जापान,
माईकल देखा, एल्विस देखा , सब देखा मेरी जान,
सारे जग में कहीं नहीं है दूसरा हिंदुस्तान,.. . .
हा हा हा हा.. .;-))

Comment by seema agrawal on January 28, 2015 at 2:24pm

 एक  बात जो मैंने महसूस की इस कथा के केंद्र में, बहुत सारी टिप्पणियों में  मैं उस बात  का ज़िक्र नहीं पा सकी 

कथा का अंत एक पत्रकार के बहुत से प्रश्नों का जवाब भले दे सके पर एक प्रश्न का उत्तर ज़रूर देता है कि इस समाज के भी अपने उसूल हैं,जिसके प्रति वो ईमानदार हैं .............ये उनके लिए सिर्फ एक काम है ........और अपने काम के प्रति वो पूरी गैरत के साथ जवाबदेही  प्रस्तुत करती हैं 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 28, 2015 at 2:17pm

आदरणीय सौरभ भईया, किसी भी प्रस्तुति पर आपकी टिप्पणी उसके होने को सार्थक कर जाया करती है, बिन्दु 1 पर  मैं बस यही कहूँगा कि उक्त पक्तियां इस लघुकथा के लिए फाउंडेशन का कार्य करती हैं, उसके बगैर इस लघुकथा को व्यक्त कर पाना मेरे लिए मुश्किल है.

बिन्दु 2 पर मैंने भाई मिथिलेश जी की टिप्पणी के प्रतिउत्तर में जो लिखा है वही साझा करना चाहूँगा ...  

दरअसल "आप" शब्द सोच समझकर लिया था, इसके पीछे सोच थी की......

पात्र के माहौल को देखते हुए यह डायलोग लिखा गया है, यदि 'आप' शब्द हटाया जाय तो 'तुम' शब्द के साथ संबोधन का भान होता है.

उदाहरण : “ऐ साहेब, ये पैसे आप (तुम) वापस रखों, मैं बगैर काम पैसे नहीं लेती”

शेष कुछ नहीं, पाठक सर्वोपरि ....आखिर लेखन कार्य तो पाठक हेतु ही किया जाता है :-)

आपकी टिप्पणी इस लघुकथा को प्राप्त हुई यह मेरे लिए एक एसेट है, बहुत बहुत आभार और नमन.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 28, 2015 at 2:08pm

आदरणीय भाई मिथिलेश जी, आपकी विवेचनात्मक टिप्पणी पढ़ बहुत ही अच्छा लगा, बल्कि यह कहें कि आपकी टिप्पणी इस लघुकथा को होने को सार्थक कर गयी. बहुत बहुत आभार.

"आप" शब्द पर आपके सुझाव का मैं हृदय से स्वागत करता हूँ साथ ही एक और बात साझा करना चाहता हूँ, दरअसल "आप" शब्द सोच समझकर लिया था, इसके पीछे सोच थी की......

पात्र के माहौल को देखते हुए यह डायलोग लिखा गया है, यदि 'आप' शब्द हटाया जाय तो 'तुम' शब्द के साथ संबोधन का भान होता है.

उदाहरण : “ऐ साहेब, ये पैसे आप (तुम) वापस रखों, मैं बगैर काम पैसे नहीं लेती”

शेष कुछ नहीं, पाठक सर्वोपरि ....आखिर लेखन कार्य तो पाठक हेतु ही किया जाता है :-)

पुनः धन्यवाद अर्पित करता हूँ, सादर.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 28, 2015 at 1:54pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी, आपकी टिप्पणी सदैव ही नवसृजन को प्रोत्साहित करती है, बहुत बहुत आभार. 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 28, 2015 at 1:53pm

सराहना हेतु आभार आदरणीय विजय जी. 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 28, 2015 at 1:52pm

प्रिय सोमेश जी, आपकी विवेचनात्मक टिप्पणी पढ़कर अच्छा लगा, बहुत बहुत आभार.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 28, 2015 at 1:49pm

आदरणीय डॉ विजय शंकर जी, आपकी स्नेह और सराहना युक्त प्रतिक्रिया मुग्धकारी है, बहुत बहुत आभार.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 28, 2015 at 12:52pm

इस लघुकथा ’ग़ैरत’ को पढ़ने और इस पर अबतक आयी टिप्पणीयों को समझने के बाद मैं अपनी बात कर रहा हूँ.
इस क्रम में दो पाठक टिप्पणियों के माध्यम से अपने तथ्य साझा करतेदिख रहे हैं, आदरणीय विनोदजी तथा आदरणीय मिथिलेश भाईजी.

१. आदरणीय विनोदजी की आपत्ति मुझे बहुत सटीक नहीं लगी. कारण कि लघुकथा का नायक जिस उद्येश्य के लिए ’वहाँ’  गया था बिना प्रथम पंक्तियों के वह उद्येश्य ही स्पष्ट नहीं हो पाता. नायक के उस माहौल के हिसाब से अन्यथा बातचीत करने का कोई मतलब फिर बन ही नहीं पाता.

२. आदरणीय मिथिलेशभाई का सुझाव न केवल समीचीन है बल्कि इन सुझावों पर ध्यान दिया जाय तो वस्तुतः कथा के परस्पर संवादों को और अधिक प्रवहमान कर देगा. साथ ही, तथ्यात्मकता भी बढ़ेगी.

अब इस लघुकथा ’ग़ैरत’ पर बात करूँ तो यह कथा मुझे अपनी सशक्त पंच-लाइन के बावज़ूद बहुत चौंका नहीं पायी. क्योंकि ऐसे माहौल, ऐसे पात्रों और ऐसे संवादों से समृद्ध कई लघुकथाएँ मैं पहले भी पढ़ चुका हूँ. समाज के इस तबके पर मुखर हो कर बात करने वाले लेखकों में सआदत हसन मण्टो का नाम श्रद्धा से लिया जाता है.
वैसे गणेश भाई की संवेदनशीलता इस लघुकथा में भी उभर कर परिलक्षित होती है. इसके लिए आपको हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएँ

कृपया ध्यान दे...

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