For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

कविता मत लिखो (अतुकान्त) // --सौरभ

आप कविता लिखते हैं ? .. कौन बोला लिखने को..?
शब्द पीट-पीट के अलाय-बलाय करने को ?
मारे दिमाग़ खराब किये हैं ?

कुच्छ नहीं बदलता.. कुच्च्छ नहीं. ..
इतिहास पढ़े हैं ?
क्या बदला आजतक ? ...
खलसा कलेवर !
केवल ढंग !
महज़ अंदाज़ !
बकिया सब ?.. .

जो ढेरम्ढेर लिख-लिख पूछते फिरियेगा न, तो बुद्धिजीवी नहीं
सीधा ’नकसल्ली’ कहलाइयेगा..  एक नम्मर का बवाली..
किसी सोये को उकसाना.. मालूम ? घोर हिंसा को बढ़ावा देना है !
पता है.. ? 

जाइये, बोल-बचन बनाइये,
शब्द गढ़िये, मात्रा गिनिये, पंक्तियों में गठन लाइये..
छन्द निभाइये..  आ मस्त रहिये !
गाँव-समाज-दुख-व्याधि-मानवता.. ऐसी की तैसी..
एक पूरा समाज भहराया पड़ा है.. त्रस्त.. लाल-लाल आँखें लिये.
ऐसे समाज के कुनबों को कुचलना

प्रशासन को सहयोग देना होता है / हमेशा से !
सभी प्रशासन को सहयोग दें.. देना ही चाहिये..
तभी दिन अच्छे आ पायेंगे.

विशिष्ट जमात में अपनी आमद की रौनक बजती है..
जाइये, आप भी रौनक बजाइये..

कापुरुषत्व अब सधे पौरुष का पर्याय है.
और साहित्य का संधान  -- हाशिये पर पड़े.. नहीं-नहीं.. .
मुँहचोर हुआ करते हैं अब !

***************
-सौरभ
***************
(मौलिक और अप्रकाशित)

Views: 908

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by kanta roy on October 12, 2015 at 11:30pm

मुझे कुछ सवैया छंद पढ़ने का मन हुआ तो आदरणीय सौरभ जी की गली में तोह लेने निकल गए।  यहां तो एक से बढ़कर एक इतनी सामग्री मिली पढ़ने को की सब सवैया छंद भूल गए।  सादर नमन 

Comment by kanta roy on October 12, 2015 at 11:27pm

जो ढेरम्ढेर लिख-लिख पूछते फिरियेगा न, तो बुद्धिजीवी नहीं
सीधा ’नकसल्ली’ कहलाइयेगा.. एक नम्मर का बवाली..
किसी सोये को उकसाना.. मालूम ? घोर हिंसा को बढ़ावा देना है ! ·······ई एक नम्मर का बहुत खिसिआन कविता हुई है। मैं तो पढ़ते -पढ़ते ही घबरा रही थी की एक -दो शब्दों का ई मोटका डंडा मेरे माथे भी न बजर जाए। ई तो जबरदस्त करेजा तोड़ै बला अतुकांत है जी। बधाई आपको आदरणीय इस गरम मिज़ाजी लठमार कविता के लिए। हा हा हा हा --बहुत बढ़िया।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 19, 2015 at 5:33pm

क्या बात है। ये रचना इस बात का उदाहरण है कि सपाटबयानी में भी कविता को जिन्दा रखा जा सकता है बशर्ते आपमें सच लिखने का साहस हो। बधाई स्वीकारें सौरभ जी।

Comment by gumnaam pithoragarhi on January 8, 2015 at 9:04pm

आप कविता लिखते हैं ? .. कौन बोला लिखने को..?
शब्द पीट-पीट के अलाय-बलाय करने को ?
मारे दिमाग़ खराब किये हैं ?

कुच्छ नहीं बदलता.. कुच्च्छ नहीं. ..

वाह सर वाह क्या बात है कुछ भी लिख देने से साहित्य नहीं बन जाता


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 8, 2015 at 8:54pm

आप कविता लिखते हैं ? .. कौन बोला लिखने को..? 
शब्द पीट-पीट के अलाय-बलाय करने को ? 
मारे दिमाग़ खराब किये हैं ?

कुच्छ नहीं बदलता.. कुच्च्छ नहीं. .. 
इतिहास पढ़े हैं ? 
क्या बदला आजतक ? ... 
खलसा कलेवर ! 
केवल ढंग ! 
महज़ अंदाज़ !
बकिया सब ?.. . 

शुद्ध देशी लताड़ .... अतुकांत कविता की विधा का मुझे  बिलकुल भी ज्ञान नहीं है इसलिए टिप्पणी सीमित शब्दों में कर रहा हूँ... पढ़कर आनंद आया और सोचने को मजबूर भी हुआ ..... शायद पाठक आनंद ले और कुछ सोचने पर मजबूर हो जाए यही कविता का उद्देश्य होता है. .... लेकिन सबसे ज्यादा जरुरी है बकिया सब ...?  प्रयास करेंगे कि बकिया सब ...?  का ध्यान रखे. आदरणीय सौरभ सर इस विशिष्ट प्रस्तुति पर बधाई और कविता के विशिष्ट शब्दों की बानगी के लिए नमन 

Comment by somesh kumar on January 8, 2015 at 4:26pm

आदरणीय ,इस रचना ने अंदर तक दोलित कर दिया ,शायद हर कविता लिखने वाले बावले का आज यही जुमला सुनने को मिलता है ,शायद कविता से युग-परिवर्तन करने का दौर ही नहीं रहा ,मैं ये तो नहीं कहूँगा की कविता नहीं रही पर यही कहूँगा की शब्दों की फकीरी ही नहीं रही ,कविता आज बहुत कुछ है पर  क्या आन्दोलन का माध्यम है ?शायद ये स्व-स्तुति और चाकरी का नया संधान है ,मनोरंजन की नई लकदक के सामने ये फीकी है ,ऐसे में आपकी कविता एक फटकर नहीं अपितु एक चेतावनी है ,की हमे क्या लिखना चाहिए और क्या करना चाहिए की कविता और कवि बना रहे |आपकी लेखनी से निकली इस कविता को  आपको प्रणाम 

Comment by khursheed khairadi on January 8, 2015 at 2:59pm

कापुरुषत्व अब सधे पौरुष का पर्याय है. 

किसी सोये को उकसाना.. मालूम ? घोर हिंसा को बढ़ावा देना है ! 
पता है.. ? 

गाँव-समाज-दुख-व्याधि-मानवता.. ऐसी की तैसी.

आदरणीय सौरभ सर व्यंग्य अपने चरम पर है |आदरणीय धूमिल जी और शमशेर जी वाली धार पुनः लौट आयी है |सादर अभिनन्दन 

Comment by दिनेश कुमार on January 8, 2015 at 1:06pm
इस व्यंग्यात्मक रचना का कहना ही क्या ...!! वाह, आदरणीय सौरभ सर जी, वाह ..!!

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 8, 2015 at 12:59pm

आदरणीय सौरभ भाई , अलग ही तेवर मे आपने ये रचना की है , बहुत तीख़ा व्यंग्य , व्यवस्था पर करारा प्रहार किया है आपने ।

जो ढेरम्ढेर लिख-लिख पूछते फिरियेगा न, तो बुद्धिजीवी नहीं
सीधा ’नकसल्ली’ कहलाइयेगा..  एक नम्मर का बवाली..
किसी सोये को उकसाना.. मालूम ? घोर हिंसा को बढ़ावा देना है !
पता है.. ?  - सत्य वचन , आदरणीय । रचना के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 8, 2015 at 12:38pm

आदरणीय सौरभ जी

ठेठ देसी भाषा में  लताड़ ----

आप कविता लिखते हैं ? .. कौन बोला लिखने को..?
शब्द पीट-पीट के अलाय-बलाय करने को ?
मारे दिमाग़ खराब किये हैं ?------------------------------------- कवियों सावधान हो जाओ i अलाय -बलाय  नहीं चलेगा I

कुच्छ नहीं बदलता.. कुच्च्छ नहीं. ..
इतिहास पढ़े हैं ?
क्या बदला आजतक ? ...
खलसा कलेवर !
केवल ढंग !
महज़ अंदाज़ !
बकिया सब ?.. . ------------------------------------------इतिहास से सीख लो भाई i रुसो , वोल्टायर मत बनो i क्या होगा ?

जो ढेरम्ढेर लिख-लिख पूछते फिरियेगा न, तो बुद्धिजीवी नहीं
सीधा ’नकसल्ली’ कहलाइयेगा..  एक नम्मर का बवाली..
किसी सोये को उकसाना.. मालूम ? घोर हिंसा को बढ़ावा देना है !
पता है.. ? ------------------------------- भैये ! वे दिन बीत गए जब  कवि जागरण का शखनाद करते थे i पर अब सोते को जगाना ----

जाइये, बोल-बचन बनाइये,
शब्द गढ़िये, मात्रा गिनिये, पंक्तियों में गठन लाइये..
छन्द निभाइये..  आ मस्त रहिये !--------------------------------- हां  स्वान्तः सुखी गाइए  किसने रोका है  पर  मुक्तिबोध मत बनिए


गाँव-समाज-दुख-व्याधि-मानवता.. ऐसी की तैसी..
एक पूरा समाज भहराया पड़ा है.. त्रस्त.. लाल-लाल आँखें लिये.
ऐसे समाज के कुनबों को कुचलना

प्रशासन को सहयोग देना होता है / हमेशा से !
सभी प्रशासन को सहयोग दें.. देना ही चाहिये..
तभी दिन अच्छे आ पायेंगे

विशिष्ट जमात में अपनी आमद की रौनक बजती है..
जाइये, आप भी रौनक बजाइये...--------------------------------------क्रूर, कुटिल व्यंग्य , आहा

कापुरुषत्व अब सधे पौरुष का पर्याय है. ----------------------- अजगुत ,अद्भुत, अनिवर्चनीय


और साहित्य का संधान  -- हाशिये पर पड़े.. नहीं-नहीं.. .
मुँहचोर हुआ करते हैं अब !--------------------------------- सत्य बचन  i हांशिये  पर रह्ते तब भी ठीक था I

             बहुत ही लीक से हटकर i  अकल्पनीय रचना i  सादर i

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
8 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Sunday
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Saturday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Friday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Friday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब साथियो। त्योहारों की बेला की व्यस्तता के बाद अब है इंतज़ार लघुकथा गोष्ठी में विषय मुक्त सार्थक…"
Thursday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service