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संक्रमित संस्कृति बनाम प्रदूषण

संक्रमित संस्कृति हमारी, सभ्यता गतिमान है |

सद्कथाएँ मिथ न हों इसका हमे ना भान है |

पर्यावरण दूषित हुआ यह क्या नही प्रमाण है ?

लुप्तप्राय कुछ जंतु जिसमें गरुण का अवसान है |

 

अंधानुकर विज्ञान का यह क्या हमारी भूल है ?

उस कृत्य से वंचित हुए हम जो जीवन का मूल है ?

सारा जहाँ ही देखिये जिस कृत्य में मसगूल है,

भौतिकता की चाह में सर्वत्र चुभता शूल है |

 

कल्पतरु मेरी ये वसुधा अनगिनत उपहार देती,

थोड़ा भी यदि श्रम करें प्रतिफल हमे आहार देती |

कृषि-श्रेष्ठ ये भारत हमारा, मृदा भी उर्वर हमारी |

उपयोग अति रासायनिक खाद दे जाती बिमारी |

 

जल प्रदूषण, वायु दूषण, मृदा एवं ध्वनि प्रदूषण,

इन सभी से भी अधिक है व्याप्त वैचारिक प्रदूषण |

क्या हम कभी संकल्प ले सकते हैं इस परिप्रेक्ष्य में,

दूषण रहित निज कर्म, संततियाँ फलें सापेक्ष्य में ?

 

हे श्रेष्ठकृति विद्वज्जनों! मिलकर सभी विचार कर लें |

मिथ दम्भ भरना छोड़के, कर्तव्य का आचार कर लें |

मन वचन केवल न, हो निज कर्म भी द्रुत दामिनी सी,

दूसरों को छोड़ पहले स्वयं में संचार कर लें |

(संसोधित)

++++++++++++++++++++++++++++

शरद सिंह “विनोद”

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by SHARAD SINGH "VINOD" on December 30, 2014 at 6:47pm

आदरणीय श्री लक्ष्मण रामानुज जी साभार धन्यवाद!!

OBO team  के अग्रज, गुरुजन से आग्रह है कि पुनः रचना को संसोधित करने हेतु क्या किया जाय?

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 30, 2014 at 1:57pm

बहुत सुंदर रचना हुई है | इस सुंदर और  बाह्पूर्ण भावाभिव्यक्ति में -

कृषि-श्रेष्ठ ये भारत हामारा, मृदा भी उर्वर हमारी |

अतिरिक्त फल की चाह में रासायनो से ली बिमरी |--"और फल की चाह में रासायनिक-खाद से ली बिमारी" करने पर संशय दूर हो सकता है |  कुछ वरनी जैसे उपरोक्त पंक्तियों में अंकित की को भी सुधार ले | अनुपम रचना के लिए हार्दिक बधाई 

Comment by SHARAD SINGH "VINOD" on December 30, 2014 at 1:38pm

आदरणीय दूबे जी..

कल्पतरु मेरी ये वसुधा अनगिनत उपहार देती,

थोड़ा भी यदि श्रम करें प्रतिफल हमे आहार देती |

कृषि-श्रेष्ठ ये भारत हामारा, मृदा भी उर्वर हमारी |..इन पंक्तियों के सापेक्ष्य....अतिरिक्त फल की चाह में रासायनो से ली बिमरी |... यानी माँ भारती जितने मे पोषित करना, पुष्ट करना चाहती है उससे कहीं ज्यादा भौतिक संसाध-सुखों की पूर्ति हेतु हेतु रसायनिक उर्वरकों का उपयोग कर हम सब उस अन्न को खाकर खुद कमजोर, रुग्ण हो ही रहे हैं और मृदा प्रदूषित तो हो ही रही है... मेरी बौद्धिक क्षमता इन भावों को  "अतिरिक्त ------------- बिमरी |" इन्ही पंक्तियों में बाँध पाई... यदि कोई सुझाव हो तो सादर स्वीकार्य..

Comment by SHARAD SINGH "VINOD" on December 30, 2014 at 1:02pm

सोमेश जी धन्यवाद!..सादार...

Comment by SHARAD SINGH "VINOD" on December 30, 2014 at 1:01pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सादर धन्यवाद!..... आपके विश्वास पर खरा उतरने का प्रयास करूँग|

Comment by SHARAD SINGH "VINOD" on December 30, 2014 at 12:56pm

आदरणीय शिज्जु "शकूर" जी हौसला आफ़जाई के लीये धन्यवाद//सादर..!

Comment by SHARAD SINGH "VINOD" on December 30, 2014 at 12:51pm

आदरणीय Dr. Vijai Shanker जी भावनाओं को तवज्जो देने के लिये सहृदय धन्यवाद.... आप सही हैं, 'मशगूल' को 'मसगूल' जैसी त्रुटि हुई है|

Comment by SHARAD SINGH "VINOD" on December 30, 2014 at 12:43pm

आदरणीय डॉ0 श्रीवास्तव जी साभार धन्यवाद ! विश्लेषणात्मक अध्ययन हेतु... कहीं कविता के उद्देश्य से ना भतक जाऊँ इसलिये भौतिक रूप (छंद विधान) को सँवार नहीं पाया हूँ|... इस पहलू पर भी प्रयास करूँगा|

Comment by somesh kumar on December 30, 2014 at 11:35am

सुंदर प्रस्तुति ,विषय भी अच्छा चुना है ,कृपया दिए गए सुझावों पर अमल करें |

Comment by Hari Prakash Dubey on December 29, 2014 at 11:02pm

 आदरणीय शरद सिंह “विनोद” जी  इस लाइन को देखें .......अतिरिक्त फल की चाह में रासायनो से ली बिमरी |....बाकी सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई !

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