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परिमूढ़ प्रस्ताव

परिमूढ़ प्रस्ताव

अखबारों में विलुप्त तहों में दबी पड़ी

पुरानी अप्रभावी खबरों-सी बासी हुई

ज़िन्दगी

पन्ने नहीं पलटती

हाशियों के बीच

आशंकित, आतंकित, विरक्त

साँसें

जीने से कतराती

सो नहीं पातीं

हर दूसरी साँस में जाने कितने

निष्प्राण निर्विवेक प्रस्तावों को तोलते

तोड़ते-मोड़ते

मुरझाए फूल-सा मुँह लटकाए

ज़िन्दगी...

निरर्थक बेवक्त

उथल-पुथल में लटक रही

अनिर्णीत

खंडित

समस्त संकल्पों को आदतन त्यागकर

लौट आती है अविरत

यंत्रबद्ध एक ही परिमूढ़ अपाहिज प्रस्ताव पर

कि चलूँ, कुछ और चलूँ, देख लूँ

शायद मोड़ लेती हुई सड़क

की दूसरी ओर

इस बार .... शायद इस बार

बेहिसाब झुठलावा न हो

अकेलापन न हो

न हो उलझन

न भटकन ...

 -- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by vijay nikore on January 2, 2015 at 3:45pm

//आपकी रचनाओं का पाठको से बतियाना अब चकित नहीं करता क्योंकि आपकी रचनाएँ स्वयं में अर्थवान संज्ञा हुआ करती हैं.
......वाह ! व्यामोह को खूब सटीक शब्द मिले हैं//

यह कह कर आपने मुझको, मेरे रचना-क्रम को, बहुत मान दिया है। आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सौरभ जी।

Comment by vijay nikore on January 1, 2015 at 1:36pm

//रचना गम्भीर होने के साथ-साथ बहुत आकर्षक भी है। रचना की शब्दावली,गति और यति ने मन मोह लिया।
रचना सरलता में गहनता समेटे हुए है //

रचना को इस प्रकार मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया विन्दु जी।

Comment by vijay nikore on December 22, 2014 at 3:23pm

रचना की सराहना के लिए और अपने विचार साझे करने के  लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया प्रियंका जी।

Comment by vijay nikore on December 21, 2014 at 3:03am

आदरणीया सविता जी, रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।

Comment by vijay nikore on December 18, 2014 at 4:32pm

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय आशुतोष जी।

Comment by vijay nikore on December 17, 2014 at 7:41am

आदरणीय हरि प्रकाश जी, रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 16, 2014 at 11:38pm

आपकी रचनाओं का पाठको से बतियाना अब चकित नहीं करता क्योंकि आपकी रचनाएँ स्वयं में अर्थवान संज्ञा हुआ करती हैं.

समस्त संकल्पों को आदतन त्यागकर
लौट आती है अविरत
यंत्रबद्ध एक ही परिमूढ़ अपाहिज प्रस्ताव पर
कि चलूँ, कुछ और चलूँ, देख लूँ
शायद मोड़ लेती हुई सड़क
की दूसरी ओर
इस बार .... शायद इस बार
बेहिसाब झुठलावा न हो
अकेलापन न हो
न हो उलझन
न भटकन ...

वाह ! व्यामोह को खूब सटीक शब्द मिले हैं आदरणीय विजय निकोरजी.
सादर बधाइयाँ

Comment by vijay nikore on December 6, 2014 at 3:37am

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय विजय शंकर जी।

Comment by vijay nikore on December 4, 2014 at 5:13pm

रचना पर समय देने के लिए और अपने अच्छे विचार देने के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय गोपाल नारायन जी।

Comment by Vindu Babu on December 3, 2014 at 6:19am

रचना गम्भीर होने के साथ-साथ बहुत आकर्षक भी है। रचना की शब्दावली,गति और यति ने मन मोह लिया।
रचना सरलता में गहनता समेटे हुए है।
कविता बहुत भली लगी आदरणीय।
आपको हार्दिक बधाई ।
सादर
शुभ

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