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वक़्त कुछ बहका है ऐसे

कल ही था कि जब छिपाकर, फेंक देते थे हम दातुन,
नीम क़ी कड़वी तबीयत, अब दवाई हो गयी है;
कल ही था जब जेठ क़ी, दुपहरी में हम गुल खिलाते,
गर्मियों क़ी दोपहर, अब बेईमानी हो गयी है;
आमों क़ी वे अम्बियाँ, थे हम कल जिनको चुराते,
बिकती हैं बाज़ार में वो, मेहरबानी हो गयीं हैं;
और ईखों की बदौलत, राब थे हम कल बनाते,
ताज़े गुड़ की भेलियाँ अब इक कहानी हो गयीं हैं.

वक़्त कुछ बदला है ऐसे,
जैसे फ़िल्मी गीतों में अब, नृत्य के अंदाज़ बदले;

कल तक लिखे जिन खतों में, पढ़ते थे हम चेहरों को,
आज टेलेफ़ोन सी ही, सूरत उनकी हो गयी है;
खेतों मैदानों में कल तक जो पसीना थी बहाती,
तकनिकी हठ्खेलियों में, वो जवानी खो गयी है;
झुर्रियां बेशक थी कल भी, कुछ चुनिन्दा चेहरों पर,
आज देखो बचपने में, नस्ल बूढ़ी हो गयी है;
भीड़ से कल तक थी बचती, लाज जो अपने घरों की,
जिंदगी की कश्मकश में, भीड़ में ही खो गयी है;

वक़्त कुछ सरका है ऐसे,
जैसे सागर तीर पैरों के तले से रेत सरके;

वह छटाएं, वो घटाएं, इन्द्रधनुषी वो फिजायें,
पीली सरसों के चमन में, पूर्व की बहकी हवाएं;
दीयों के फैले उजाले, रंग फागुन के हमारे,
स्नेहरस से जो भरे थे, रूप रिश्तों के वे सारे;
सीरतें अपनी ये सारी, होठों की मुस्कां हमारी,
जीवन में होए कमी पर फिर भी खुशियों की सवारी:
प्रीत की पायल की छमछम, माँ के हाथों के निवाले;
समय चाहे जितना बदले, आओ हम इनको बचा लें;

वक़्त कुछ बहका है ऐसे,
जैसे मय के आसरे में होश क़ी आवाज़ बहके;

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Comment

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Comment by Rajeev Mishra on March 14, 2011 at 1:34pm
बहुत सुंदर !
Comment by neeraj tripathi on March 9, 2011 at 1:31pm
Ganeshji evam Vandanaji...Aap dono ko bahut bahut dhanyavaad.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 9, 2011 at 10:00am

कल तक लिखे जिन खतों में, पढ़ते थे हम चेहरों को,
आज टेलेफ़ोन सी ही, सूरत उनकी हो गयी है;

 

बेहद खुबसूरत और बुलंद ख्यालात

 

प्रीत की पायल की छमछम, माँ के हाथों के निवाले;
समय चाहे जितना बदले, आओ हम इनको बचा लें;

 

बिलकुल सत्य कहा है आपने , यदि हमें अपनी संस्कृति और परंपरा को बचानी है तो इन बातों पर ध्यान देना होगा |

सुंदर रचना , बधाई स्वीकार करे नीरज त्रिपाठी जी |

Comment by neeraj tripathi on March 8, 2011 at 9:48pm
Arunji, Lataji, bahut bahut shukriya...aap logon ko pasand aayi...likhna saarthak hua.
Comment by Lata R.Ojha on March 8, 2011 at 8:50pm

आमों क़ी वे अम्बियाँ, थे हम कल जिनको चुराते,
बिकती हैं बाज़ार में वो, मेहरबानी हो गयीं हैं;

 

कल तक लिखे जिन खतों में, पढ़ते थे हम चेहरों को,
आज टेलेफ़ोन सी ही, सूरत उनकी हो गयी है;

badalte waqt ne jo chura liya humse ,un meethi yaadon ko dohra lia ..aaj waqt behka hai aise ki jeewan ki masoomiyat ko hi kha liya..

bahut khoob ..

Comment by Abhinav Arun on March 8, 2011 at 2:20pm

बदलते वक़्त का बेहतरीन चित्रण ,प्रभावपूर्ण रचना केलिए बधाई |

Comment by neeraj tripathi on March 8, 2011 at 12:22pm
dhanyavaad Dushyant ji...aabhar aapka ..aapko pasand aayi.
Comment by दुष्यंत सेवक on March 8, 2011 at 12:19pm

प्रीत की पायल की छमछम, माँ के हाथों के निवाले;
समय चाहे जितना बदले, आओ हम इनको बचा लें;

ahhhhaaaa waah waah khubsurat shabdo me tab aur ab ko bayan karti ek behtareen rachna aabhar neeraj ji

Comment by neeraj tripathi on March 8, 2011 at 12:19pm
shukriya rashmiji...apni likha, likhne ke baad mujhe kuch khaas pasand nahi aata...par ye panktiyan vaastav mein sundar ban padi..
Comment by rashmi prabha on March 8, 2011 at 12:06pm

वक़्त कुछ बहका है ऐसे,
जैसे मय के आसरे में होश क़ी आवाज़ बहके... waah , kya baat hai !

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