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चाक दिल सिलता नहीं देखो दुबारा (ग़ज़ल 'राज')

२१२२   २१२२   २१२२ 

ढूँढती इक मौज तूफां में किनारा

क्यूँ समझता ही नहीं सागर ईशारा

 

तिश्नगी उसको कहाँ तक ले गई है

अक्स अपना झील में उसने उतारा

 

फ़र्क क्या पड़ता चमकती चाँदनी को

छटपटाता फिर कहीं टूटा सितारा

 

फट गया जो पैरहन तो ग़म नहीं है

चाक दिल सिलता नहीं देखो दुबारा

 

डोलती किश्ती बढ़ाती हाथ अपना

उस तरफ़ तुम मोड़ लो अपना शिकारा

 

खोल दो गर तुम लटकती उस पतंग को

लोग देखेंगे अजब दिलकश नजारा

 

देख लो इक बार उसको मुस्कुराकर

डूबते की आस तिनके का सहारा

 

अंजुमन में गैरों की उस गुफ़्तगू में

 कम से कम अब नाम तो आया हमारा 

 

लौट आयें फिर वही पुर-कैफ़ मंजर

वक़्त जिनके दरमियाँ हमने गुज़ारा

---------------------------------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित ) 

पुर-कैफ़ मंजर---सुखद आनंद भरा   नाम 

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 4, 2014 at 5:38pm

आ० राम अवध जी ,आपका बहुत बहुत धन्यवाद |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 4, 2014 at 5:37pm

आ० अखिलेश जी ,बहुत बहुत शुक्रिया आपका|


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 4, 2014 at 5:37pm

जितेन्द्र गीत भैया ,आपको ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से आभार आपका |

Comment by Dr. Vijai Shanker on October 4, 2014 at 3:39pm

खोल दो गर तुम लटकती उस पतंग को
लोग देखेंगे अजब दिलकश नजारा
आदरणीय राजेश कुमारी जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल बानी है , बधाई।

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on October 4, 2014 at 2:53pm

बधाई अच्छी गजल के लिये

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 4, 2014 at 12:39pm

आदरणीया राजेशजी

अच्छी गज़ल हुई है , हार्दिक बधाई

शायद टंकण त्रुटि है ........  सही शब्द इशारा है  

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 4, 2014 at 12:09pm

वाह ! आदरणीया राजेश दीदी, बहुत ही बेहतरीन गजल कही है आपने. हर शेर पर दिल से बधाई आपको

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