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चार पांच किक के बाद किसी तरह स्कूटर स्टार्ट हुई मास्साहब की | पसीना पोंछते हुए जैसे ही बैठने को हुए कि एक गाड़ी आकर रुकी | गाड़ी से उतरकर उस नौजवान ने मास्साहब के पैर छुए और एक पैकेट उन्हें देने लगा |
वो अभी सोच ही रहे थे कि नौजवान बोला " सर , आपकी शिक्षा का ही सुपरिणाम है कि आज मैं कुछ बन पाया हूँ , आज के दिन इंकार मत करिये " | मास्साहब ने पलट कर एक नज़र दरवाजे पर खड़ी अपनी पत्नी की तरफ देखा और विनम्रता से पैकेट लौटाते हुए बोले " तुम्हारे आदर से बड़ी भेंट कुछ और नहीं हो सकती , जीवन में और तरक्की करो " |
पत्नी को अपने कहे शब्द " क्या कमाया है आपने आजतक " का उत्तर मिल गया था |

मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on September 8, 2014 at 12:53pm
Comment by विनय कुमार on September 8, 2014 at 12:52pm

आभार अन्नपूर्णा बाजपेईजी..

Comment by विनय कुमार on September 8, 2014 at 12:51pm

आभार डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तवजी..


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 7, 2014 at 5:48pm

यही सच्चा गुरु- शिष्य सम्बन्ध है , यही होना भी  चाहिए , पर अब दोनों अपनी अपनी जगह से च्युत हैं , किसको कौन दोष दे | आपको सुन्दर लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई |

Comment by annapurna bajpai on September 7, 2014 at 5:26pm

वाह !!! अति सुंदर , लघु कथा बहुत बधाई 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 7, 2014 at 12:20pm

आदरणीय विनय जी

मुझे अपने शोध-गुरु डा0 पाण्डेय रामेन्द्र  की याद आ गयी i उनका निस्पृह व्यक्तित्व  मुझे हमेशा प्रेरणा देता है i  कालेज  के दोस्तों  में  बात हो रही थी i सब अपने अपने गुरु की प्रशंसा  में कसीदे पढ़ रहे थे i किसी ने कहा मेरे गुरु तो गंगा की भांति पवित्र हैं i दूसरे ने उससे पूछा  और रामेन्द्र सर ? छात्र ने जवाब दिया- अरे वह तो अमृत है i उनसा कोई नहीं i ऐसे है मेरे गुरु i मै उन्हें यहाँ प्रणाम करता हूँ i सादर i

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