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मैंने सुना तू सोने को मिट्टी बताता है

२२     १२२२      २१२    २१२   २२

कोशिस मसीहा बनने की जब  कर रहा है तू

तो  सूलियों पे चढ़ने से क्यूँ  डर रहा है तू ?

 

मैंने सुना तू सोने को मिट्टी बताता है

क्यूँ फिर तिजोरी सोने से ही भर रहा है तू ?

 

सबको दिखाया करता है तू मुक्ति के पथ ही

खुद सोच क्यूँ घुट घुट के ही यूं मर रहा है तू ?

 

तूने उठायी उंगली सभी के चरित्र पर है

सबको खबर रातों में कहाँ पर रहा है तू

 

ले नाम क्यूँ मजहब का लड़ाता सभी को है 

क्या भारती की पीड़ा ऐसे हर रहा है तू

 

जिस देश में मुफलिस को नहीं खाने को रोटी

काजू चबेने जैसे वहाँ चर रहा है तू

 

 

मौलिक व अप्रकाशित 

Views: 898

Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 30, 2014 at 12:24pm

आदरणीय सौरभ सर ..आदरणीय वीनस सर ..आप जैसे बिद्व्त्जनो की प्रतिक्रियाओं के बाद ही मालूम पड़ता है कि रास्ता जितना आसान दीखता है उतना हैं नहीं ..आदरनीय वीनस सर ..आपने मेरी भ्रान्ति का निवारण किया इसके लिए मैं आपका शुक्रगुजार हूँ ...

कहना तो चाहता हूँ पर हिम्मत नहीं कर पाता हूँ .. शुरुआती दौर में जब आदरणीय बागी जी , आदरणीय योगराज सर , आदरणीय सौरभ सर और आदरणीय वीनस जी सभी की प्रतिक्रियाये किसी न किसी रचना पर एक साथ लगभग हर दिन मिल जाती थी.. जिस की रचना होती थी उसे तो नव चिंतन नव उर्जा मिलती ही थी हर पाठक अपनी नयी रचना के लिए तमाम गलतियों की संभावनाओं से बच जाता था ... काश वो दिन फिर आये जब आप सब बिद्वतजनो की प्रतिक्रियाय एक साथ पुनः देखने को मिलें ..ताकि हम आइना देखते रहे और अपनी कमियों को समझ सकें ...प्रति दिन कम से कम किसी एक रचना पर बिस्तृत प्रतिक्रियाओं से हमें अपनी समझ को और पैना करने में मदद मिलेगी ....ये मेरा निवेदन है .....आदरणीय वीनस सर से भी निवेदन है की थोडा समय नियमित रूप से देने का कष्ट करें....भावों में बह कर मुझसे इस मंच की मर्यादा के संबंद में कोई भूल हुई हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ ..सभी विद्वतजनो को प्रणाम और उनके परामर्श और मार्गदर्शन की आकांक्षा के साथ ..सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 29, 2014 at 12:38pm

'बहरे मुज़ारे मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़'  ...............   स्वाहा ..

हा हा हा हा............

बहुत दिनों बाद अच्छे ढंग से समय दिया वीनसभाई.. इसीकी तो प्रतीक्षा थी..  :-))

जुलाई जल्दी जाये.. [हम सभी के लिए.. ;-)))) .. ]

Comment by Amod Kumar Srivastava on July 29, 2014 at 8:24am

 शानदार ... बधाई स्वीकार करें ..... 

Comment by vandana on July 29, 2014 at 5:28am

बहुत बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय 

कोशिस मसीहा बनने की जब  कर रहा है तू

तो  सूलियों पे चढ़ने से क्यूँ  डर रहा है तू ?

Comment by वीनस केसरी on July 29, 2014 at 2:10am

और हाँ .. बहर है -

२२१  / २१२१ /  १२२१  / २१२
'मफ़ऊलु फ़ाइलातु मफ़ाईलु फ़ाइलुन'।
'बहरे मुज़ारे मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़'

Comment by वीनस केसरी on July 29, 2014 at 2:04am

अरूज़ी तो मैं भी नहीं हूँ :)
बह्रहाल मेरी समझ में आपकी ग़ज़ल का अस्ल अरकान ये है -. २२१  / २१२१ /  १२२१  / २१२

कोशिस म / सीहा बनने /  की जब  कर र / हा है तू
२२१         /     २१२१    /       १२२१       / २१२

तो सूलि    / यों पे चढ़ने  /   से क्यूँ  डर र / हा है तू ?

२२१         /     २१२१    /       १२२१       / २१२

 

मैंने सु  / ना तू सोने  / को मिट्टी ब / ताता है

२२१     /     २१२१    /       १२२१       / २१२

क्यूँ फिर ति / जोरी सोने   / से ही भर र   /  हा है तू ?
२२१           /     २१२१    /       १२२१     / २१२

बाकी के अशआर आप खुद तक्तीअ कर लें, वैसे बाकी के अशआर बहर से ख़ारिज हैं, तक्तीअ करके सुधार कर लीजिये 
हाँ ये भी कि, कहन के लिए ढेरो दाद हाज़िर है ... जो आप कहना चाहते हैं वो स्पष्ट है, वैसे कुछ प्रयास से भाषा और साफ़ हो सकती हैं 

जैसे -

कोशिस मसीहा बनने की जब  कर रहा है तू

तो सूलियों पे चढ़ने से क्यूँ  डर रहा है तू ?......... जब के साथ तब का प्रयोग भाषा के सही प्रयोग को दर्शायेगा, भौतिक रूप से एक इंसान सूली पर चढ़ सकता है, सूलियों पर नहीं ...

 तंज़ के साथ जब हम सम्मान को जोड़ देते हैं तो तंज़ दस गुना बढ़ जाता है ,, देखिये ...

कोशिस मसीहा बनने की जब कर रहे हैं आप

सूली पे चढ़ने से भला क्यूँ डर रहे हैं आप

सोने को मिट्टी मानने वालों में आप हैं 

फिर क्यों तिजोरी सोने से ही भर रहे हैं आप

बैठे बिठाए "आप पार्टी" पर भी निशाना साधने का मज़ा लीजिये .. हा हा हा


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 28, 2014 at 6:26pm

अरुज़ की नियमावलियाँ ठीक हैं, ज़िहाफ़ की बातें मुझसे न पूछें, आदरणीय. ग़ज़ल कहना एक बात है और अरुज़ के अनुरूप सलाह देना दूसरी बात. मैं ग़ज़ल कह लेता हूँ, अरुज़ी नहीं हूँ.  मैं तो छोटा हूँ, अच्छे-अच्छे ग़ज़लकार अरुज़ी नहीं होते.

और, विरले अरुज़ी कायदे की ग़ज़ल कह लेते हैं.

सादर

Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 28, 2014 at 3:43pm

आदरणीय सौरभ सर ..आपकी सलाह के लिए तहे दिल धन्यवाद 

सर क्या २२१२ २२१२ २२११ २२ किया जा सकता है की नहीं ..इस ग़ज़ल में तो मैं उलझ गया हूँ आप ही कोई रास्ता दिखाने का कष्ट करें    २२११ का प्रयोग भी संदिग्ध लग रहा है ...सादर प्रणाम के साथ 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 22, 2014 at 11:14am

मैं आपकी ग़ज़ल को २२१२  २२१२ २२१२ २२ के हिसाब से ही देखना चाह रहा था. भान था कि मिसरों का वज़न गलत अंकित हो गया है. लेकिन आगे के निम्नलिखित मिसरों को मैंने देखा तो ये मेरी सोच से इतर लगे -

तूने उठायी उंगली सभी के चरित्र पर है

सबको खबर रातों में कहाँ पर रहा है तू

 

ले नाम क्यूँ मजहब का लड़ाता सभी को है

जिस देश में मुफलिस को नहीं खाने को रोटी

काजू चबेने जैसे वहाँ चर रहा है तू  

इसी कारण मैंने शुद्ध बज़न को उद्धृत नहीं किया. 

सादर

   

Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 22, 2014 at 8:19am

आदरणीया वेदिका जी ...ग़ज़ल पर आपकी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद ..सादर 

कृपया ध्यान दे...

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