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बात करते गाँव की - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

रोज    की   है   बादलों   से   छेड़खानी   आपने
और  गढ़  ली  प्यास  की  कोई  कहानी  आपने

***
चाह  रखते  हो  भगीरथ  सब  कहें  इतिहास में
पर न  खुद से  एक  दरिया  भी  बहानी  आपने

***
बात  करते  गाँव  की  पर कब  उसे  तरजीह दी
गाँव  को  तम  दे   सजाई   राजधानी    आपने

***
आपको दरिया मिली हर प्यास को सच है मगर
खोद  कूआँ  कब   निकाला  यार  पानी  आपने

***
लाख  दुख  मैं  मानता  हूँ  आपने  झेले  मगर
झोपड़ी  का  दुख  न   झेला   राजरानी  आपने

***
जानता तुम हो ‘मुसाफिर’ पर सफर ऐसा भी क्या
हो कठिन  जब  दो  घड़ी  भी रूक बितानी आपने

***
बह्र - 2122    2122    2122    212

***
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by coontee mukerji on May 7, 2014 at 1:26am

रोज    की   है   बादलों   से   छेड़खानी   आपने
और  गढ़  ली  प्यास  की  कोई  कहानी  आपने

***
चाह  रखते  हो  भगीरथ  सब  कहें  इतिहास में
पर न  खुद से  एक  दरिया  भी  बहानी  आपने

***
बात  करते  गाँव  की  पर कब  उसे  तरजीह दी
गाँव  को  तम  दे   सजाई   राजधानी    आपने......सच  ही तो है....इस सार्थक रचना के हार्दिक बधाई धामी जी.

Comment by भुवन निस्तेज on May 6, 2014 at 11:03pm

बात  करते  गाँव  की  पर कब  उसे  तरजीह दी
गाँव  को  तम  दे   सजाई   राजधानी    आपने

आपको दरिया मिली हर प्यास को सच है मगर
खोद  कूआँ  कब   निकाला  यार  पानी  आपने


लाख  दुख  मैं  मानता  हूँ  आपने  झेले  मगर
झोपड़ी  का  दुख  न   झेला   राजरानी  आपने


जानता तुम हो ‘मुसाफिर’ पर सफर ऐसा भी क्या
हो कठिन  जब  दो  घड़ी  भी रूक बितानी आपने

क्या खूब आदरणीय, बधाई हो...

हाँ एक बात पराप्का धुआं आकृष्ट कराना चाहूँगा 

चाह  रखते  हो  भगीरथ  सब  कहें  इतिहास में
पर न  खुद से  एक  दरिया  भी  बहानी  आपने

इस खूबसूरत शेर में ऐब-ए-तकबुले ज़ुज्बे रादिफैन है जैसा प्रतीत हो रहा है, क्रिया देख ले.

सादर... 

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on May 6, 2014 at 9:49pm

सच्ची सच्ची बात ही बखानी आपने ...बहुत ही मार्मिक !

Comment by Shyam Narain Verma on May 6, 2014 at 5:32pm
सुन्दर भावों से सजी इस गज़ल के लिए आपको बहुत बधाई।

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