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अतुकांत कविता .....प्रवृत्ति.....

एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं सुख-दुःख,
फिर क्यों लगता है -
-सापेक्ष सुख के नहले पर दहला सा दुःख ?
- सुख मानो ऊंट के मुहं में जीरा-सा ?
आखिर क्यों नहीं हम रख पाते निरपेक्ष भाव ?

प्यार-नफ़रत तो हैं सामान्य मानवी प्रवृत्ति !
फिर भी -
प्यार पर नफ़रत लगती सेर पर सवा सेर ,
प्यार कितना भी मिले दाल में नमक-सा लगता !
थोड़ी भी नफ़रत पहाड़ सी क्यों दिखती है आखिर ?

होते हैं मान-अपमान एक थाली के चट्टे-बट्टे !
मिले मान तो होता गर्व, होती छाती चौड़ी ,
और अपमान पर तिलमिला जातें हैं क्रोध से !
पढ़ा है पर भूल जाते हैं पाठ सहिष्णुता का !
क्यों नहीं दोनों को समरूप ग्रहण कर पाते हम ?

जीवन-संगीत के दो सुर हैं हार-जीत !
एक की हार में होती दूजे की जीत निहित !
जीतते हैं तो आसमान महसूसते हैं मुट्ठी में ,
मिले हार तो चाहते हैं धरती में समा जाना !
आखिर क्यों -
हार-जीत की कसौटी पर उतर जाता रंग हमारा ?

कोई नही होता सिर्फ अच्छा या सिर्फ बुरा !
अच्छाई और बुराई -
एक म्यान में समायी रहतीं हैं दो तलवारों सी !
लेकिन सुन बड़ाई अपनी असीमित होता है आनंद ,
हो बुराई तो हो जाती है प्रज्ज्वलित क्रोधाग्नि !
आखिर क्यों प्रशंसा पर भारी पड़ जाती हैं निंदा ?

सविता मिश्रा
१४/२/२०१२
"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by savitamishra on April 28, 2014 at 11:22pm

जी जरुर ...कोशिश करेगें ...वैसे एक बार करने की किये भी पर भावों को लिखना सरल है काव्य रूप देना शायद कठिन ..फिर भी समय और दिल करते ही इस पर मेहनत करेगें ...अच्छी कर पाए तो खुश होगी हमे ...सादर आभार आपका


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 28, 2014 at 8:34pm

जब तक जीवन की डोर मन के हाथ में रहती है, मन दो ध्रुवों के मध्य डोलता सुख-दुख , हार-जीत,  प्यार नफरत, मान-अपमान में कभी आनंदित तो कभी व्यथित होता रहता है..

//क्यों नहीं हम दोनों कों एक-सा ले पाते है ,//

मन को साध कर हर स्थिति में समभाव रह पाना एक बहुत बड़ी चुनौती होता है.

इन बिन्दुओं पर सोचती आपकी अभिव्यक्ति के लिए बधाई ...

पर इस अभिव्यक्ति पर आदरणीय बृजेश जी के कहे का पूर्णतः समर्थन करती हूँ... यह अभिव्यक्ति गद्यात्मक ही है इसे कविता के प्रारूप में ढालने के लिए कुछ और समय की दरकार है.

Comment by savitamishra on April 21, 2014 at 12:50pm

bahut bahut shukriya mukesh bhai apka

Comment by Mukesh Verma "Chiragh" on April 21, 2014 at 9:18am

आदरणीया सविता जी
तक़रीबन हर इंसान अपनी जिंदगी में हर दिन (शायद हर पल) इन सवालों के बीच झूलता रहता है.. अध्यात्म का रास्ता भी इन्ही सवालों के बीच से है..
हृदयस्पर्शी लिखा है आपने
आपकी सोच को प्रणाम

Comment by savitamishra on April 20, 2014 at 11:29pm
Comment by बृजेश नीरज on April 20, 2014 at 8:44am

हम अपने भाव, विचार गद्य और पद्य दोनों में व्यक्त करते हैं. अतुकांत लिखते समय यह सावधानी आवश्यक है कि अपनी बात किस तरह प्रस्तुत की जाए कि वह गद्य न लगे! आपकी यह रचना लेख की तरह है. इस बिंदु पर प्रयास की आवश्यकता है. कहन को धारदार बनाने का प्रयास करें. सपाटबयानी रचना को और भी गद्यात्मक बनाती है!

इस अच्छे प्रयास पर आपको हार्दिक बधाई!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 20, 2014 at 12:27am

आपने मेरे विचारों को इतना मान दिया ,आभार आपका आदरणीया सविता जी

Comment by savitamishra on April 19, 2014 at 7:50pm

C.M.Upadhyay "Shoonya Akankshi"chachaji bahut bahut shukriya dil se

Comment by savitamishra on April 19, 2014 at 7:49pm

गिरिराज भंडारी bhaiya saadr namste ....bahut bahut sukriya apka dil se

Comment by savitamishra on April 19, 2014 at 7:48pm

जितेन्द्र 'गीत bhai aap bilkul sahi kahen ..kuchh jyada nahi kahen balki sachchai hi kahen ...abhar apka jo aapne itna vistaar se samjha aur samay diya samjhaane ke liye

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