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तुम ही तुम..........बृजेश

निःश्वसन

उच्छ्वसन

सब देह-कर्म, यह अवगुंठन

मोह-पाश के बंधन तुम

बस तुम! तुम ही तुम

 

व्यक्त हाव

अव्यक्त भाव

नेह-क्लेश, अभाव-विभाव

रूप-गंध के कारण तुम

बस तुम! तुम ही तुम

 

सम्मुख हो जब

विमुख हुए, तब 

मनस-पटल की चेतनता सब 

अनुभूति-रेख में केवल तुम

बस तुम! तुम ही तुम

- बृजेश नीरज 

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश नीरज on March 25, 2014 at 9:21pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी बहुत आभार!

Comment by बृजेश नीरज on March 25, 2014 at 9:21pm

आदरणीया वंदना जी आपका बहुत-बहुत आभार!

Comment by बृजेश नीरज on March 25, 2014 at 9:20pm

आदरणीय जितेन्द्र जी आपका बहुत आभार!

Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 25, 2014 at 5:11pm

जीवन की हर सांस को उस शर्व्शाक्तिमान प्रभु से जोडती इस रोचक रचना के लिए आपको तहे दिल बधाई ..मेरी हार्दिक शुभकामनाएं स्वीकार करें ..सादर 

Comment by vijay nikore on March 25, 2014 at 11:38am

अति सुन्दर रचना। बधाई।

Comment by annapurna bajpai on March 25, 2014 at 10:40am

बहुत खूब ! आ0 बृजेश जी सुंदर रचना बधाई आपको । 

Comment by Vindu Babu on March 25, 2014 at 6:12am

भावनाओं कोअच्छे ढंग से पिरोया है आपने.

अंतिम बंद सबसे अच्छा लगा।

आपको हार्दिक बधाई इस सुंदर अभिव्यक्ति के लिए आदरणीय।

सादर

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 25, 2014 at 12:04am

मन को छू जाते हुए, बहुत सुंदर भावों से संजोयी रचना.  हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय बृजेश जी

Comment by बृजेश नीरज on March 24, 2014 at 10:14pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी आपके शब्दों ने मेरे प्रयास को एक नया आयाम प्रदान किया है.आपका हार्दिक आभार! 

Comment by बृजेश नीरज on March 24, 2014 at 10:12pm

आदरणीय धामी जी आपका हार्दिक आभार!

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